सिनेमा, फिल्म के नाम से हमारे मन-मष्तिष्क में एक तस्वीर
उभरती है बड़े से हॉल की, एक पर्दे की, पर्दे पर हीरो-हीरोइन के
प्यार और इसके समानान्तर चलती हिंसा-मारपीट-सेक्स-अश्लीलता की दुनिया की। वर्तमान
फिल्मों में कॉलेज का माहौल जहाँ अध्यापन से ज्यादा इश्कबाजी और उससे ज्यादा
गुंडागर्दी का प्रदर्शन, कॉलेज कैम्पस में ही निपटाए जाते दो-चार
फूहड़ गीत और फिल्म अन्ततः हिंसा-मारपीट-बलात्कार-हत्या जैसी स्थितियों से गुजरती हुई
हीरो-हीरोइन के सुखद मिलन पर समाप्त हो जाती है। देखा जाये तो फिल्मों का यह स्वरूप
जन-भावनाओं के अनुसार निर्मित होता जा रहा है। फिल्मकार भली-भांति जानते हैं कि सिनेमा
में लोगों को देखने को चाहिए क्या है। उनका उद्देश्य फिल्म के द्वारा अधिक से अधिक
धन कमाना रहता है और इसके लिए वे कुछ भी करने को तैयार रहते हैं। अधिक से अधिक धन प्राप्ति
की अभिलाषा में फिल्मकार वह सब दिखाने को तत्पर रहता है जिसकी लालसा समाज का मध्यम
वर्ग करता है और कहीं न कहीं इसको अश्लील भी मानता है। इस नैराश्य में अभी भी ऐसे
फिल्मकार हैं जो सामायिक और गंभीर विषयों को महत्व देते हुए अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति
के लिए फिल्म निर्माण कर रहे हैं। इन फिल्मकारों के मन में वे संस्कार हैं जिन्हें
पिछले दशकों में एक बेहतर पीढ़ी छोड़ गई है। रमाशंकर चौधरी, देवकी
बोस, शांताराम, सोहराब मोदी, जयंत देसाई, चेतन आनंद, विमल राय,
गुरुदत्त, सत्यजीत रे, राजकपूर
आदि की फिल्मों को देखकर स्वस्थ-स्वच्छ, मनोरंजक फिल्मों की धारणा-अवधारणा
बेहतर तरीके से पुष्ट होती है। नये फिल्मकारों में से अधिकांश न तो इस तरह की स्वस्थ,
स्वस्थ, मनोरंजक, संदेशप्रधान
फिल्मों का निर्माण कर रहे हैं और न ही इन फिल्मकारों को अपना आदर्श बनाना चाहते हैं।
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आज निर्माता-निर्देशक जीवन की सच्चाई दिखाने के नाम पर जीवन के गोपन को उभारने
लगे हैं। सेक्स, देह का खुला प्रदर्शन, अश्लीलतम गीतों-नृत्यों-भावभंगिमाओं के साथ अश्लील संवाद फिल्मों में स्थान
सहज भाव से पाने लगे हैं। ‘चोली के पीछे क्या है’ ‘एक चुम्मा तू मुझको उधार दे दे’ ‘सरकाय लेओ खटिया’ ‘ए गनपत चल दारू लगा’ ‘भाग डी के बोस’ ‘चार बोतल बोदका’ जैसे गानों के बोल और
संवाद अदायगी ने फिल्मों को वाचाल स्वरूप प्रदान किया। फिल्मों के बँधे-बँधाये,
निश्चित विषयों को कम्प्यूटर तकनीक, विेदशी लोकेशन
की तड़क-भड़क और मसालेदार गीत-संगीत, सेक्स-अश्लीलता का तड़का लगाकर
कुछ अलग सिद्ध करने का प्रयास किया जा रहा है पर कोई संदेश देने में असफलता ही
मिली है। हीरो-हीरोइन का सेक्समय प्रेम, दो-चार गीत-नृत्य,
मारपीट-हिंसा और अंत में हीरो-हीरोइन का मिलन... लगभग सभी फिल्मों की
इतनी सी कहानी है जो फार्मूलाबद्ध रूप से हमारे सामने आ रही है। फिल्मकारों के
साहित्य के प्रति उपेक्षित भाव से ऐसी स्थिति निर्मित हुई है। मुंशी प्रेमचन्द ने फिल्मों
के सवाक् होने पर लिखा था कि ‘अक्सर लोगों को ख्याल है कि जब से सिनेमा ‘सवाक्’हो गया है, वह साहित्य का अंग हो गया है और साहित्य सेवियों
के लिए कार्य का एक नया क्षेत्र खुल गया है। साहित्य भावों को जगाता है, सिनेमा भी भावों को जगाता है इसलिए वह भी साहित्य है।’
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वर्तमान में जहाँ ‘रंग दे बसंती’ ‘तारे जमीं पर’ ‘थ्री ईडियट्स’ ‘वेलकम टू सज्जनपुर’ ‘न्यूयॉर्क’ जैसी साफ सुथरी और विषय-विशेष पर आधारित फिल्मों से सुखद अनुभूति
होती है वहीं ‘कमीने’ ‘कम्पनी’ जैसी फिल्मों
की प्रेतछाया डराती भी है। फिल्मों के द्वारा प्रेम का, अश्लीलता
का, देहयष्टि का, ठुमकेदार नृत्य-गीतों
का नाटक रचकर एक पूरी की पूरी पीढ़ी को गुमराह किया जा रहा है। फिल्म की इस तरह की नकारात्मक
सशक्तता युवा पीढ़ी में कामलोलुपता, फ्री सेक्स, आधुनिक जीवनशैली, भौतिकतावादी संस्कृति की बीजारोपण कर
चुकी है। बुद्धिजीवी सुसुप्तावस्था में पड़े फिल्मों की वाचालता देख समाज में होता व्याभिचार
देख रहे हैं। खामोशी समाज के जागरूक वर्ग के होठों पर है और समाज की वास्तविकता का
मायाजाल दिखाकर समाज को भरमाने वाले फिल्मकारों की जुबान बोलती है और कहती है-“गोली
मार भेजे में, भेजा शोर करता है....।”
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