समाज जिस तेजी से
तकनीक के मामले में आधुनिक होता जा रहा है उसी तेजी से आपसी संबंधों के मामले में
पिछड़ता जा रहा है. एक तरफ लोग इस बात से प्रसन्न हैं कि देश मंगल तक जा पहुँचा
किन्तु इस बात के लिए दुखी नहीं हैं कि रिश्तों के नाम पर समाज रसातल में जा रहा
है. लोग बड़ी ही गर्वोक्ति के साथ इस बात को बताते हैं कि वे सुदूर देशों के लोगों
के साथ सम्पर्क स्थापित किये हुए हैं किन्तु उन्हें इस बात से हीन भावना महसूस
नहीं होती कि उन्हें अपने पड़ोसी के बारे में कोई जानकारी नहीं है. वे विदेशी
संस्कृति को अपनाये जाने के जबरदस्त समर्थक दिखते हैं किन्तु अपने ही देशवासियों
के साथ सौहार्द्र स्थापित करने में पीछे रह जाते हैं. जिनके लिए रंगरेलियाँ मनाने
में, जाम छलकाने में, रंगीन पार्टियों करने में लाखों-लाख रुपये फूँकना स्टेटस
सिम्बल होता है वे सामाजिक सद्भाव, अपनत्व, भाईचारा बढ़ाने वाले त्योहारों-पर्वों
के आयोजनों को ढकोसला बताने से नहीं चूकते हैं. इस तरह के अनेक उदाहरण हमें अपने
आसपास देखने को मिल जाते हैं. देखा जाये तो कहीं न कहीं ये एक तरह की सामाजिक
विकृति को दर्शाते हैं. ये सामाजिक विकृति समाज में आपसी वैमनष्यता के रूप में, विद्वेष
के रूप में, आपसी तनाव के रूप में फैलती दिख रही है और इसका असर अब उन पर्वों,
त्योहारों, समारोहों आदि पर पड़ने लगा है जो कहीं न कहीं सामाजिक सद्भाव बढ़ाने में
सहायक बनते हैं, आपस में स्नेह बनाये रखने में मददगार होते हैं, समन्वय
की-सामूहिकता की भावना का विकास करते हैं.
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अब त्योहारों को
त्यौहार के नाम पर नहीं वरन हिन्दू-मुस्लिम के नाम पर मनाया जाता है; स्त्री-पुरुष
के नाम पर मनाया जाता है; धर्मनिरपेक्षता-साम्प्रदायिकता के नाम पर मनाया जाता है.
और ये बहुतायत में हिन्दू पर्वों-त्योहारों के नाम पर किया जा रहा है. ऐसा महज एक
दीपावली के नाम पर ही नहीं हो रहा वरन लगभग प्रत्येक हिन्दू त्यौहार-पर्व को अब
कटघरे में खड़ा किया जा रहा है. होली को पानी का अपव्यय वाला, दुर्गा पूजा को
सामाजिक विद्वेष फ़ैलाने का, रामनवमी को-दशहरा को हिंदुत्व स्थापित करने का, रक्षाबंधन-करवाचौथ
को स्त्री आधीनता का, नागपंचमी को जानवरों पर अत्याचार करने का, दीपावली को
प्रदूषण फ़ैलाने वाला सिद्ध करने का कुत्सित प्रयास लगातार हो रहा है. किसी भी
पर्व-त्यौहार को साम्प्रदायिकता, धर्मनिरपेक्षता के चश्मे से देखने से बेहतर है कि
उसके द्वारा सामाजिक सद्भाव स्थापित करने का प्रयास किया जाये. हिन्दू
पर्वों-त्योहारों को फिजूल, अपव्यय वाला बताने के स्थान पर उसमें समाहित शिक्षाओं
का, उसमें समाहित संस्कृति पालन का प्रचार किया जाना चाहिए.
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दीपावली के इस पावन
पर्व का ही उदाहरण लिए जाये तो स्पष्ट है कि ये पर्व अपने आपमें स्वच्छता लाने का,
अँधेरा मिटाने का, सबके साथ खुशियाँ बांटने का पर्व है. घरों को रंग-रोगन से
सजाकर, रंगोली से निखार कर, दियों की रौशनी में, पटाखे फोड़कर उल्लास दर्शाकर, सबको
गले लगा मिठाई खिलाकर सामाजिक समरसता फ़ैलाने का सन्देश स्पष्ट रूप से मिलता है. हम
सभी के प्रयास यही हों कि पर्वों-त्योहारों के माध्यम से सामाजिक समरसता पैदा की
जा सके, आपसी विद्वेष को दूर किया जाये, बुराइयों को मिटाया जाये, खुशियों को बाँटा
जाए. किसी समय ऐसा किया भी जाता था, ऐसा होता भी था जबकि दीपावली को सुरक्षित
तरीके से मनाये जाने के बारे में चर्चा की जाती थी. अब दीपावली न मनाये जाने की
बात की जाती है, इसे प्रदूषण फ़ैलाने वाला, धन की बर्बादी वाला, शोर-धुआँ पैदा करने
वाला बताया जाने लगा है. अब भी दीवाली पर पटाखे फोड़ें, रौशनी करें किन्तु साथ ही
याद रखें कि हमारे किसी कदम से हमारे समाज को नुकसान न हो. यदि हम एक कदम भी इस ओर
बढ़ा पाते हैं तो फिर जगमग दीपावली का वास्तविक आनन्द उठा सकते हैं.
. चित्र गूगल छवियों से साभार
बहुत सकारात्मक सोच है आपकी।
जवाब देंहटाएंकाश सभी इसका अनुकरण करते।
सार्थक प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंज्योतिपर्व की हार्दिक मंगलकामनायें!