13 अक्तूबर 2014

रिश्ते और सम्बन्ध बचाने के लिए



परम्पराओं और मान्यताओं से संपन्न इस देश में, संबंधों और रिश्तों से परिपूर्ण समाज में अब आये दिन संबंधों और रिश्तों की पावनता को ठेस पहुँचाई जाती है; रिश्तों और संबंधों की गरिमा को तार-तार किया जाता है. आधुनिक समाज लगातार विकृति का शिकार होता जा रहा है. नित्यप्रति अब ऐसे समाचारों से दो-चार होना पड़ता है जहाँ रिश्तों को कलंकित किया जा रहा होता है. हत्या, बलात्कार, डकैती, अपहरण जैसी जघन्य वारदातें भी खून के रिश्तों में अब सहजता से देखने मिलने लगी हैं. समाज लगातार ऐसी घटनाओं पर अपने को शर्मसार बताता है किन्तु अगले ही दिन इसी तरह की वारदात फिर इसी समाज में हो जाती है. समाज का लगातार शर्मसार होते रहना और लगातार इस तरह की वारदात करते रहना अपने आपने अद्भुत सा लगने लगा है. सारा समाज किस तरह से ऐसी वारदातों का अभ्यस्त होता चला जा रहा है. अब विद्रोह होता है तो सिर्फ नेतागीरी चमकाने के लिए, अब विरोध होता है तो प्रशासन को हलकान करने के लिए, अब प्रदर्शन होता है तो मीडिया में छा जाने के लिए. इस तरह की वारदातें रुकें, इसके लिए किसी भी तरह के प्रयास होते नहीं दिख रहे हैं.
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समाज में पहली कोशिश इस बात की होनी चाहिए थी कि ऐसी वारदातें न हों, रिश्ते कलंकित न हों, मानवता का ह्रास न हो किन्तु इसके उलट संबंधों को ही, रिश्तों को ही कटघरे में खड़ा किया जा रहा है. कभी स्त्री और पुरुष को आपस में शत्रु की तरह साबित किया जा रहा है, कभी परम्पराओं को स्त्री-पुरुष के विकास में बाधक बताया जा रहा है, कहीं ये सिद्ध करने का प्रयास किया जा रहा है माता-पिता द्वारा लगाई जा रही बंदिशें ही युवाओं को भटकने पर मजबूर कर रही हैं. पहनावे का, खान-पान का, रहन-सहन का, आसपास के वातावरण का, दोस्ती सहित अन्य सम्बंधित बातों का सम्बन्ध सिर्फ सेक्स से, दैहिक संतुष्टि से जोड़ा जाने लगा है. इस तरह से दर्शाने का प्रयास किया जा रहा है कि यदि युवा वर्ग ने प्रेम नहीं किया तो वे अधूरे हैं, विवाह-पूर्व सेक्स न किया या फिर विवाहेतर सम्बन्ध न बनाये तो वे पिछड़े कहलाये जायेंगे.
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बहरहाल स्थितियाँ बहुत ही विकट हैं और इनका जल्द से जल्द समाधान किये जाने की आवश्यकता है. इसके लिए सर्वप्रथम संबंधों और रिश्तों की महत्ता सबको समझनी और समझानी होगी. आज जिस तरह से संयुक्त परिवार एकल और नाभिक परिवारों में बदलते जा रहे हैं उससे भी ऐसी समस्याएं बढ़ी हैं. ऐसे में हम सभी को परिवार की महती भूमिका को समझना होगा. संस्कारों, परम्पराओं, पर्वों, त्योहारों को रूढ़ियों के रूप में परिभाषित किया जाने लगा है, इससे भी गरिमामयी वातावरण समाप्त सा हुआ है. आने वाले समय को और अधिक विकृति से बचाने हेतु संस्कृति, सभ्यता, संस्कार आदि पर विशेष बल देने की आवश्यकता है. यदि आधुनिकता के नाम पर इन सबको विस्मृत किया जाता रहा तो एक दिन सिवाय दैहिक रिश्तों, संबंधों के अन्य कोई रिश्ता या सम्बन्ध नज़र नहीं आएगा. 
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