03 अगस्त 2014

पिच्च कहीं भी, धार कहीं भी पर रहेंगे सभ्य ही



जब भी कहीं सार्वजनिक मंचों से, गोष्ठियों में, कक्षा में बच्चों को शिक्षा देते समय, और भी कई अवसरों पर हम सभी कहने से नहीं चूकते कि हम सभ्य समाज के लोग हैं. किसी की गलती पर ताना मारते हुए कह भी देते हैं कि सभ्य समाज में रहने वालों की ऐसी हरकतें हैं... आदि-आदि. इन्हीं के सन्दर्भ में कई सवाल उठते हैं कि क्या वाकई हम सभ्य समाज में रह रहे हैं? क्या वाकई हम खुद को सभ्य कह सकते हैं? क्या वाकई हमारी हरकतें सभ्य कहलाने योग्य हैं? इन हरकतों में उन लोगों की करतूतों को शामिल नहीं किया जा रहा है जो हत्याएं करते हैं, जो बलात्कार करते हैं, जो बच्चियों को भी हवस का शिकार बनाने से नहीं चूकते. इसमें वे भी शामिल नहीं जो दहेज़ के लिए हत्या कर देते हैं, जो विद्वेष की भावना के चलते किसी लड़की को तेजाब से जला देते हैं, बेटों की लालसा में बेटियों को भ्रूण में ही मार डालते हैं. ऐसे लोग तो घोषित रूप से असभ्य, बर्बर, दुर्दान्त आदि की श्रेणी में शामिल किये जाते हैं. सभ्य-असभ्य के दायरे में ऐसे लोगों को लाये जाने की आवश्यकता है जो बनते जिम्मेवार नागरिक हैं किन्तु हरकतें असभ्यता की परिचायक होती हैं.
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ऐसे ही अत्यंत सभ्य नागरिक सड़क पर पड़ी गंदगी को देखकर, दीवारों पर जगह-जगह पीक के निशान देखकर विदेशों के उदाहरण देते हैं. लोगों को बताते हैं कि कैसे वहाँ पर ऐसा करने वाले पर जुर्माना लग जाता है. इतना बताने के बाद, भारतीय मानसिकता को गरियाने के बाद यही लोग सड़क पर एक ‘पिच्च’ मार देते हैं; अपने हाथ में लिए पॉलीथीन को सड़क के किनारे उछाल देते हैं. बहुत से पुरुषों का सार्वजनिक स्थानों पर किसी दीवार, किसी कोने, किसी खोमचे की, घर-मकान की आड़ लेकर पेंट की ज़िप खोलकर खड़े हो जाना भी असभ्यता का परिचायक है. बहुत से दम्भी किस्म के लोग इसे भी अपनी मर्दानगी के रूप में परिभाषित करते दिखाई देते हैं. अपनी कार, बाइक जहाँ चाहे वहाँ बेतरतीब लगाने की आदत बहुत से लोग अभी भी नहीं छोड़ पाए हैं. वे शायद समझना ही नहीं चाहते कि इससे न केवल दूसरों को बल्कि खुद उन्हें भी परेशानी का सामना करना पड़ सकता है. इसी तरह से लाइन में लगकर कोई भी काम करवाना हमें तौहीन सा समझ आता है. बिना बात सामने वाले पर रोब जमाकर, धौंस दिखाकर बिना क्रमबद्ध हुए अपने काम को करवाना चाहते हैं. बहुत छोटे-छोटे से काम से लेकर बड़े-बड़े कामों तक के लिए रिश्वत को हमने वरीयता देनी शुरू कर दी है. अपने इस कुकृत्य को हम लोग किसी न किसी स्पष्टीकरण के द्वारा सही भी साबित करने का कौशल रखते हैं. इनके अलावा रोजमर्रा में तमाम ऐसी घटनाएँ, ऐसे कदम हम उठाते हैं जो हमारे सभ्य होने की एक अलग ही कहानी कहते हैं.
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यदि हम अपने को सभ्य कहने की, कहलाने की स्थिति में हैं तो हमें स्वयं इस बात का आकलन करना होगा कि हमारा कौन सा कदम, कौन सा कृत्य हमें सभ्य-असभ्य के रूप में स्थापित कर रहा है. हमें इस बात को समझना होगा कि प्रत्येक व्यक्ति के भीतर एक प्रकार का समाज स्थापित होता है, प्रतेक व्यक्ति के भीतर एक तरह की शर्म मौजूद होती है किन्तु वो अपने घर से बाहर आते ही भुला बैठता है. सड़क पर बात-बात पर अपनी हरकतों से असभ्यता दिखाने वाले पुरुष अपने घर में कैसे सभ्य बने रहते हैं? अपने घर में नितान्त अकेले होने के बाद भी कोई व्यक्ति सम्पूर्ण नग्नावस्था में नहीं टहलता रहता है; बाथरूम का दरवाजा तब भी बंद करके ही सम्पूर्ण नित्यकर्म निपटाता है. कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं करता कि फ्रिज में जूते रख दे, कपड़ों को जूतों की सेल्फ में रख आये, बाथरूम में जाकर भोजन करने लगे, अपनी बाइक, साइकिल आदि को रसोईघर में रखने लगे, बजाय बिस्तर पर सोने के सीढ़ियों पर सोने लगे, कहीं भी किसी भी दीवार के किनारे खड़े होकर मूत्र-विसर्जन करने लगे आदि-आदि. ये समझने का विषय है कि यदि हम अपने घर में सभ्यता का परिचय दे सकते हैं तो घर के बाहर निकलते ही असभ्य कैसे और क्यों हो जाते हैं? घर के अतिरिक्त किसी अन्य जगह को घर समान न समझने का खामियाजा ही आज हम सभी उठा रहे हैं. हम में से बहुत से लोग इसी मानसिकता के चलते थोड़े से असभ्य हो जाते हैं और कुछ लोग असभ्यता की हदों को पार करके दुर्दान्त, वहशी, अपराधी बन जाते हैं. अगली बार किसी व्यक्ति को सभ्य-असभ्य साबित करने के पहले एक सवाल हमें अपने आपसे ही करने की आवश्यकता है कि क्या हम वाकई सभ्य हैं?  
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