06 अगस्त 2014

न भुलाएँ भारतीय संस्कृति

भारतीय सांस्कृतिक परम्परा में पर्वों-त्योहारों का विशेष ही महत्त्व है. हमें अवसर चाहिए होता है और हम पूर्ण मनोयोग से इनके आयोजन में जुट जाते हैं. इधर चंद दिनों में हर्ष-उल्लास से भरे पर्व निकले; भारतीय भूमि पर विदेश से आयातित दिवस भी गुजरे. हम भारतीयों ने सभी पर्व-उत्सवों-दिवसों को सहजता से स्वीकार किया है किन्तु वर्तमान में देखने को मिल रहा है कि हम जिस उत्साह से विदेशी-आयातित दिवसों, त्योहारों का स्वागत करते हैं, उसी उत्साह से भारतीय पर्वों-त्योहारों को नहीं मना रहे हैं. फ्रेंडशिप डे आया सर्वत्र चर्चा रही, उसी के ठीक पहले नागपंचमी गुजरी दो-चार लोगों ने परम्परा का पालन किया. प्रेम का पर्व माने जाने वाले वेलेंटाइन डे पर बहार छाई रहती है पर भारतीय प्रेम-पर्व ‘बसंत पंचमी’ हम विस्मृत कर जाते हैं, जैसे अभी-अभी हमने हरियाली तीज को विस्मृत किया, तुलसी जयंती को विस्मृत किया.
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भारतीयता से, भारतीय संस्कृति से, सभ्यता से, भाषा से, बोली से अलग होकर हम किस तरह का विकास चाहते हैं, अब ये निर्धारण करने का समय आ गया है. ज्ञान-विज्ञान के नाम पर हिन्दी को हाशिये पर लगाया जा रहा है; धार्मिक तुष्टिकरण की नीति के चलते धार्मिक ग्रंथों को, वैदिक ग्रंथों को दूर किया जा रहा है; भारतीय संस्कृति का वाहक मानी जाने वाली रामचरित मानस को भी रेशमी कपड़े में लपेट आम भारतीय की पहुँच से दूर कर दिया गया. हम सभी को विचारना होगा कि ऐसा कब तब तक चलेगा? ऐसा कैसे चलेगा? अपनी जड़ों से कट कर हम कहाँ विकास कर पाएंगे? अपनी संस्कृति से अलग रहकर हम क्या सीख पायेंगे? अपनी भाषा को विस्मृत कर हम कौन सा ज्ञान ले पाएंगे? काश हम जागने-समझने की स्थिति में आयें.... तो संभव है कि हम वास्तविक विकास कर पायें. आशा, आकांक्षा, विश्वास को मन में लिए आगे बढ़ना है, खुद को गढ़ना है... समाज को गढ़ना है... देश को गढ़ना है. 
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