फिर एक मानवीय चूक और
फिर कई नौनिहालों को असमय मौत का शिकार होना पड़ा. दुर्घटना हो गई, बच्चों की
मृत्यु हो गई, कुछ बच्चे घायल और नाजुक स्थिति में हैं, मुआवजे की घोषणा हो गई,
जांच के आदेश दे दिए गए और बाकी लोग लग गए इस दुर्घटना की विवेचना करने में. कोई
रेलवे को दोष देने में लगा है तो कोई बस ड्राईवर की गलती सिद्ध करने में लगा है. एक
तरफ रेलवे द्वारा बुलेट ट्रेन चलाये जाने की चर्चा गर्म होती दिख रही है, जहाँ
स्पीड को लेकर आये दिन नए-नए प्रयोग करके ट्रेनों को और तीव्र बनाया जा रहा है
वहीं रेलवे के अनुसार समूचे देश में लगभग दस हजार से ज्यादा मानव रहित रेलवे
क्रासिंग हैं. ये अपने आपमें एक चिंता का विषय है कि लगातार उन्नति की तरफ अग्रसर
होते जा रहे समाज में आज भी इतनी बड़ी संख्या में मानव रहित रेलवे क्रासिंग हैं. ये
दुखद भी है.
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सवाल यही उठता है कि
इसका उपाय क्या है? ऐसे हालातों में रेलवे किस मुंह से आधुनिक सुविधाओं की, उन्नत
तकनीक की, विकसित रेलवे ट्रेक की, तीव्रतम गति की बात करता है? मानव रहित क्रासिंग
बंद किये जाने का, उनके स्थान पर ओवरब्रिज, सब-वे आदि बनाये जाने का विकल्प सोचा
जाना चाहिए. हालाँकि इस सम्बन्ध में बनी एक समिति द्वारा इस काम में कई हजार करोड़
रुपये खर्च का अनुमान बताया गया है. हो सकता है कि वर्तमान आधारभूत ढाँचे को देखते
हुए बहुत अधिक हो किन्तु इस खर्च को इंसान की जान की कीमत को देखते हुए अधिक कदापि
नहीं कहा जा सकता है. रेलवे को इस दिशा में प्रयास करने की आवश्यकता है, भले ही
वर्तमान में सभी मानव रहित रेलवे क्रासिंग पर किसी स्थायी, सुरक्षित विकल्प को
नहीं अपनाया जा सकता है तब तक वहाँ पर अस्थायी कर्मियों की तैनाती की जा सकती है, जिसकी
पूर्ति स्थानीय नागरिकों के रूप में हो सकती है.
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रेलवे हो सकता है
संसाधनों के कारण ऐसी स्थितियों के समाधान को लेकर संशय में रहता हो, उसे पूर्ण कर
पाने की स्थिति में न रहता हो किन्तु एक नागरिक भी ऐसी जगहों पर होने वाली
दुर्घटनाओं के लिए कम जिम्मेवार नहीं है. मानव रहित क्रासिंग की बात एक पल को छोड़
दी जाये तो उन स्थानों में जहाँ कि क्रासिंग है, मानव हैं वहाँ भी लोग हील-हुज्जत
करके, स्कूटर-बाइक-साईकिल लुड़का-झुका कर रेलवे ट्रेक पार करते देखे जाते हैं. और
विडम्बना ये कि ऐसा करने वाले न तो बच्चे होते हैं और न ही अशिक्षित बल्कि ऐसा
करने वालों में शिक्षित, नौकरीपेशा, व्यापारी आदि शामिल होते हैं. अब इनका निराकरण
रेलवे किस तरह करे? यदि यहाँ भी दुर्घटना हो जाये, जैसा कि आये दिन होती भी हैं,
तो रेलवे उसके लिए किस तरह जिम्मेवार है? हर आम में हड़बड़ी, भागमभाग की जिंदगी, समय
से तेज भागने की कवायद, पैसे के पीछे अंधे होकर दौड़ने की हवस, एक पल को न रुक पाने
की अकुलाहट आदि को इन क्रासिंग पर देखा जाता है. फाटक, वो चाहे इलेक्ट्रॉनिक रूप
से बंद होने वाला हो या फिर मानव द्वारा, फाटक बंद होने के पहले उसे पार करने की,
ट्रेन के आते दिखने के बाद भी ट्रैक पार
करने की हड़बड़ अधिसंख्यक लोगों में देखी जा सकती है.
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कुछ इसी तरह की
हड़बड़ी का शिकार बना होगा स्कूल बस का ड्राईवर, जिसने ट्रेन को आते देख भी अनदेखा
किया होगा, अपनी स्कूल बस की गति को ट्रेन की गति से अधिक मापा होगा और ट्रेन को
पछाड़ने के चक्कर में अपने सहित कई बच्चों को मौत के मुँह में धकेल दिया. यहाँ
स्पष्ट है कि ट्रेन एकाएक तो सामने आ नहीं गई होगी और ये भी स्पष्ट है कि रेलवे
ट्रैक में अंधे मोड़ जैसी कोई स्थिति भी नहीं होती कि दोनों की गति के अनियंत्रित
हो जाने के कारण टक्कर हुई. समझना होगा कि महज कुछ पलों की जल्दबाजी ने कितने
लोगों को छीन लिया, कितने घरों को आंसुओं में डुबो दिया. इस दुर्घटना में या फिर
इस तरह की दुर्घटनाओं में गलती चाहे रेलवे की निकाल दी जाये, या फिर मानवीय चूक किन्तु
इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि इंसान की लापरवाही, अतिशय जल्दबाजी, हड़बड़ी
आदि के कारण इन दुर्घटनाओं का जन्म होता है. यदि इंसान अपनी लापरवाह
कार्य-संस्कृति को त्याग दे, धैर्य-संयम का परिचय देने लगे तो बहुत सी दुर्घटनाओं
को रोका-टाला जा सकता है.
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