09 जून 2014

बेटियों का गर्भ में ही मर जाना बेहतर है?




बलात्कार...बलात्कार...बलात्कार..... ऐसा लग रहा है जैसे देश की नियमित दिनचर्या में ये अपराध शामिल हो गया है. क्या युवा, क्या वृद्धा, क्या बच्चियाँ सबको बलात्कारी अपना शिकार बना रहे हैं. वीभत्सता तो ये है कि इस जघन्य अपराध के बाद बच्चियों की हत्याएँ कर दी जा रही हैं. किसी को तेजाब पिला दिया जा रहा है, किसी को चाकुओं से गोदा जा रहा है तो किसी को फाँसी पर लटका दिया जा रहा है. उफ़! वीभत्सता का कोई अंत नहीं, विकृति का कोई समाधान नहीं दिखता है और ऐसे में घनघोर निराशा-हताशा-भय का माहौल जन्म लेता है. डर लगता है, सिरहन सी मचती है जब दिमाग इन वीभत्स घटनाओं पर मंथन करने लगता है. समझ से बाहर हो जाता है कि क्या सही है, क्या गलत है? दिमाग अंतर्द्वंद्व में फँस जाता है, उसे समझ नहीं आता है कि समाज में बेटियों को जन्म देना अपराध हो रहा है या बेटियों को भ्रूण में मार डालना जायज हो रहा है? आखिर क्या फायदा एक बेटी को जन्मने का, जिसकी सुरक्षा भी जन्मदाता नहीं कर पा रहे हैं, सरकारें नहीं कर पा रही हैं, शासन नहीं कर पा रहा है, कानून नहीं कर पा रहा है.
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अपने सामाजिक सक्रियता भरे जीवन में कई सामाजिक कार्य किये किन्तु एकमात्र अंतिम लक्ष्य ‘कन्या भ्रूण हत्या निवारण’ को बना रखा. विगत एक दशक से अधिक की यात्रा में ज्ञात पचास से अधिक परिवारों में बच्चियों को भ्रूण में ही मिटने से रोका, अभिभावकों को समझाया, वृद्धजनों को एहसास करवाया, रिश्तेदारों को बताया कि बेटियाँ भी आपका हिस्सा हैं, आपका प्यार हैं, आपका गौरव हैं. अब जबकि ऐसी दुर्दान्त घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में किसी बेटी से, किसी बच्ची से नजर मिलाते हैं तो लगता है कि खुद हमारे भीतर एक अपराधबोध सा घर कर गया है. किसी बेटी को कामुक हवशियों का शिकार बन जाने के लिए बचाया है? क्या किसी बच्ची को असमय मौत की नींद सो जाने के लिए इस संसार में आने दिया है? क्या किसी बच्ची को कामुक दरिंदों की हवस का शिकार बनने के लिए पैदा होने दिया गया है?
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क्या निष्कर्ष निकला इस अभियान का? क्या अंतिम सत्य साबित हुआ? कभी गर्व की अनुभूति से खुद को आकाश से ऊपर समझने का एहसास आज धरती में कहीं गहरे दफ़न हुआ जाता है. हम सामाजिक संरचना को बचाए रखने के लिए गर्भ में मारी जाती बच्चियों को सुरक्षित कर रहे थे या फिर उनको मारे जाने के लिए ही? बेटियों के द्वारा पारिवारिकता को आगे बढ़ाने के लिए उनको गर्भ में मरने से रोक रहे थे या फिर असमय गैंग-रेप का शिकार होने के लिए? मन खिन्न है क्योंकि हम सिवाय आन्दोलन करने के, सिवाय मोमबत्तियां जलाने के, सिवाय सरकारों को कोसने के, सिवाय कड़े से कड़ा कानून बनाये जाने की माँग करने के, सिवाय चंद आलेख-कवितायें लिखने के, सिवाय गोष्ठियाँ-सेमिनार करने के कुछ और नहीं कर पा रहे हैं. कानून के कारण, शासन-प्रशासन के कारण हाथ बंधे हैं, शांति-अहिंसा की फटी चादर ओढ़े रहने के कारण मजबूर हैं, कोरी थोथी इज्जत के खोल में छिपे बैठे हैं. फिर किसी बच्ची की चीखों के बीच मन चीख-चीख कर सवाल करता है कि क्या बेटियों का भ्रूण में मर जाना ही बेहतर नहीं?
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