आपदाओं पर आपदाएँ आती जाती हैं, चली जाती हैं, हम साल-दर-साल
इन आपदाओं में मारे गए लोगों को, हताहत हुए लोगों को याद कर लेते हैं और फिर से नई
आपदा के आने का इंतज़ार सा करने लगते हैं। एक के बाद एक होती आपदाओं से भी हम सीखने
का प्रयास नहीं करते हैं। हर आपदा के बाद प्रकृति को, प्रबंधन को, व्यवस्था को,
शासन-प्रशासन को, सरकार को दोष देकर अपनी गलतियों से पल्ला झाड़ लेते हैं। यदि हम
बिना किसी पूर्वाग्रह के देखें तो कुछेक आपदाओं को छोड़कर समूची आपदाएँ, समूची
दुर्घटनाएँ मानव-जन्य होती हैं। ट्रेन दुर्घटनाएँ हों, सड़क के हादसे हों, नदियों
में लोगों के डूब जाने की घटनाएँ हों, केदारनाथ जैसी दर्दनाक त्रासदी हो सभी में
कहीं न कहीं मानवीय चूक अधिक रही है। इस मानवीय चूक में उससे सम्बंधित प्रबंधन,
उससे सम्बंधित व्यवस्था, उससे सम्बंधित सुरक्षा, उससे सम्बंधित जानकारी कुछ भी हो
सकती है।
.
अभी हाल ही में व्यास नदी में कुछ युवाओं के बह जाने का
दर्दनाक हादसा हुआ तो केदारनाथ त्रासदी को भी एक वर्ष हुआ। बजाय भविष्य में इस तरह
की घटनाओं की पुनरावृत्ति रोकने के हम व्यवस्था को कोसने में लग गए। देखा जाये तो
व्यवस्था में लगे लोग, प्रबंधन में लगे लोग भी इन्सान हैं और उनसे चूक होना भी
संभव है। ऐसे में उपाय क्या हों इस पर विचार करने की आवश्यकता है।
.
सड़क पर चलते समय ध्यान इस बात पर दिया जाए कि महज हम अकेले
नहीं हैं जो यात्रा कर रहे हैं, सड़क का उपयोग कर रहे हैं। हमारे साथ-साथ अनेक लोग
कई तरह से सड़क का उपयोग करते दिखते हैं। न केवल हमारी अपनी बल्कि दूसरों की
सुरक्षा, सहूलियत का ध्यान रखना हमारा कर्तव्य है। बाइक, कार आदि चलाते समय इस बात
का ख्याल रखा जाए कि अनियंत्रित गति एक तरफ हमारे अपने लिए घातक है तो दूसरी तरफ
सड़क पर चल रहे अन्य यात्रियों के लिए भी घातक है।
.
नदियों, तालाबों, नहरों, स्विमिंग पूल आदि में स्नान करने,
तैराकी करते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि पानी का तेज बहाव अनियंत्रित होता
है। मानवीय प्रबंधन एक सीमा तक ही इसके विकराल रूप पर अंकुश लगा सकता है, उसके बाद
तो पानी की मार नागरिकों को सहनी पड़ती है। ऐसे एक-दो नहीं सैकड़ों उदाहरण हैं जहाँ
पानी के अनियंत्रित बहाव ने तो नुकसान किया ही है हमारी अपनी चूक ने भी त्रासदी को
जन्म दिया है।
.
अपने मकान, दुकान अथवा अन्य दूसरे निर्माण के समय इस बात का
विशेष ख्याल रखना चाहिए कि हमारा निर्माण किसी भी रूप में अतिक्रमण न पैदा कर रहा
हो। ये अतिक्रमण पेड़-पौधों के काटने को लेकर, सड़क को कब्जाने को लेकर, नालियों को
अवरुद्ध करने को लेकर हो सकता है। हाल के दिनों में आई बाढ़ का बहुत बड़ा कारण शहरों
की नालियों, नालों के अवरुद्ध होने तथा आसपास की नदियों, नहरों पर अतिक्रमण ही रहा
है। चंद इंच भूमि के लिए हम प्रकृति से खिलवाड़ करके अपने जीवन से ही खिलवाड़ करते
हैं।
.
वैसे देखा जाए तो ये सब यहाँ लिखना-कहना बेकार की बात हो गई
है। आखिर हम सब, जो यहाँ इस आलेख को पढ़ रहा है, नेट का इस्तेमाल कर रहा है, वो
पढ़ा-लिखा है और आसानी से समझता है कि क्या सही है, क्या गलत है। इसके बाद भी हम इस
भाव से कि हमारी गलती का खामियाजा कौन सा हमें भुगतना है, गलती पर गलती किये जाते
हैं। और सच भी होता है कि हमारी गलती का परिणाम हमारे नौनिहाल भुगतते हैं। कभी वे
बाढ़ का शिकार होते हैं तो कभी सड़क दुर्घटनाओं के, कभी वे शुद्ध हवा को तरसते हैं
तो कभी मौसम की अनियमितता का शिकार बनते हैं। चलिए अपने लिए न सही, अपने बच्चों के
लिए ही सही... हम भी गलती कम से कम करें, अपने बच्चों को भी कम से कम गलती करने की
शिक्षा दें। उनको सजग रहना, सतर्क रहना, सुरक्षित रहना, सहायक होना, जागरूक होना
आदि सिखाएं। संभव है कि आने वाली पीढ़ी कुछ हद तक कुछ सीखकर आपदाओं पर नियंत्रण
लगाना सीख जाए।
.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें