‘एक आशियाना बनाने में लग गया सारा जीवन, हवा के इक झोंके ने
तिनके-तिनके बिखरा दिए’ ये पंक्ति मुम्बई के कैम्पाकोला सोसायटी वाले बड़ी शिद्दत से
महसूस कर रहे होंगे। अदालत की तरफ से भी राहत न मिलने के बाद सोसायटी का गिराया
जाना, वहाँ रह रहे परिवारों द्वारा उसको खाली करना सुनिश्चित ही लग रहा है। इसके
बाद भी स्थानीय लोगों द्वारा, विभिन्न राजनैतिक दलों द्वारा, संस्थाओं द्वारा,
नामचीन हस्तियों द्वारा सोसायटी की बिल्डिंग को न गिराए जाने की, वहाँ के परिवारों
को बेदखल न किये जाने की अपील लगातार की जा रही है। इसके बाद भी अदालत का रुख और
महाराष्ट्र सरकार के कदमों को देखकर लगता नहीं है कि कोकाकोला सोसायटी की इस
बिल्डिंग के निवासियों को राहत मिल सकेगी।
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इस पूरे प्रकरण में एक अजब तरीके की विसंगति देखने को मिलती
है जो सरकारी तंत्र की उदासीनता को व्यक्त करती है। ऐसा तो नहीं है कि महज एक रात
में या चंद पलों में एकाएक ये बिल्डिंग बनकर तैयार हो गई होगी, पूरी वैधानिक
प्रक्रिया के बाद इसका ये स्वरूप सामने आया होगा। इसके बाद भी कहाँ और किस स्तर पर
चूक हुई कि एक बिल्डर ने अवैध रूप से एक-दो कमरे नहीं वरन पूरी की पूरी बिल्डिंग
बना ली? यहाँ इस बिल्डिंग में फ़्लैट लेने वालों को कदापि दोषी नहीं माना जा सकता
है क्योंकि मुम्बई जैसे महानगरों में ये तहकीकात कर पाना आसान नहीं होता कि
बिल्डिंग वैध है या अवैध, फिर खुलेआम हो रहे निर्माण कार्य की वैधता को लेकर संशय
क्यों किया जाएगा। स्पष्ट है कि समूचा मामला बिल्डर से लेकर सरकारी तंत्र के
भ्रष्ट होने का है। जिस देश में ‘सब चलता है’, ‘चाँदी का जूता सब सेट कर देगा’, ‘ले
देकर काम निकालने’ की मानसिकता काम कर रही हो वहाँ कुछ भी संभव है। इस मानसिकता का
दंड आज इस सोसायटी के निवासी भुगतने को अभिशप्त हैं।
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इस सोसायटी का अंतिम परिणाम क्या होगा ये अभी भविष्य के गर्भ
में है किन्तु इस पूरे मामले की जांच होनी चाहिए और वो भी पूरी गंभीरता के साथ क्योंकि
ये महज अवैध बिल्डिंग का मामला भर नहीं लगता है। जिस तरह से मल्टीप्लेक्स, मॉल
बनाये जाने की व्यावसायिक सोच चहुँओर दिख रही है, ऐसे में संभव है कि निकट भविष्य
में किसी राजनेता या किसी भी प्रभावशाली व्यक्ति अथवा उसके परिचित द्वारा कानूनी
रूप देते हुए इसी स्थान पर किसी व्यावसायिक काम्प्लेक्स का निर्माण कर लिया जाए? ऐसा
संशय इसलिए पैदा हो रहा है आखिर इसी देश में वोट-बैंक के लालच में लाखों-लाख
झुग्गी-झोपड़ियाँ, अवैध कॉलोनियां वैध कर दी जाती हैं; जिस देश में अवैध तरीके से
घुसपैठ कर विदेशी नागरिक वैधता पा जाते हों; जिस मुम्बई का ये मामला है वहाँ भी
सबसे बड़ी झुग्गी कॉलोनी को मान्यता मिली हुई है वहाँ एक बिल्डर की और कुछ सरकारी
अधिकारियों-कर्मचारियों की गलती की सजा चंद परिवार उठाने को मजबूर हैं? कहीं इस
कारण तो नहीं कि एक सैकड़े से कम लोग वोट-बैंक नहीं होते? कहीं इस कारण तो नहीं कि
बिल्डर किसी प्रभावशाली के संरक्षण में है? कहीं इस कारण तो नहीं कि अब वहाँ कुछ
और बनाया जायेगा, कानूनी रूप देकर? ऐसे मामलों में सरकारें तो संज्ञाशून्य होकर कार्य
करती हैं किन्तु अदालत से इतना कठोर होने की आशा-अपेक्षा नहीं थी। मात्र एक
व्यक्ति की करतूत की, सरकारी कार्य-प्रणाली की विसंगति की सजा इतने परिवारों को
देना न्यायसंगत नहीं है। जहाँ अवैध को वैधता प्रदान करना सरकारों के बाएं हाथ का
खेल हो; जहाँ शिक्षा व्यवस्था की अनेक विसंगतियां चुटकियों में रफादफा हो जाती
हों; जहाँ हत्या-बलात्कार करने वाले कानूनी दांव-पेंच के सहारे मंत्री बन जाते
हों; अरबों-खरबों के अवैध कारोबार एक नियम के चलते वैध हो जाते हों वहाँ अपने
नागरिकों के प्रति सरकार का दुराग्रही और निष्ठुर होना न्यायसंगत नहीं लगता।
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