धर्मनिरपेक्षता का
दम भरने वाले किस कदर साम्प्रदायिकता के रंग में रंगे नज़र आते हैं, ये चुनावों को
देखकर समझा जा सकता है. देश के सभी राजनैतिक दलों द्वारा भाजपा पर साम्प्रदायिकता
फ़ैलाने का आरोप लगाया जाता है लेकिन उन सभी दलों की तरफ से किस तरह की साम्प्रदायिकता
फैलाई जा रही है, इसको ध्यान में नहीं रखा जाता है. इधर चुनावी मौसम शुरू हुआ, उधर
नेताओं की जीभ कतरनी की तरफ चालू हो गई और चालू हो गया सांप्रदायिक बयान देने का
सिलसिला. एक हैं जो कुछ मिनट मांगते हैं सफाए के लिए, एक हैं जो बोटी-बोटी करने को
तैयार बैठे हैं; एक महोदय खुद को मुसलमानों का पहरेदार बताते हैं तो एक दूसरे हैं
जो हत्यारा, भेड़िया जैसे शब्दों से परिभाषित करते हैं. समझना होगा कि
साम्प्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता में अंतर क्या है, कौन है जो वाकई इनकी अहमियत
को समझता है. एक हिन्दू नेता द्वारा टोपी न लगाना साम्प्रदायिकता हो सकती है तो
फिर एक मुस्लिम नेता द्वारा तिलक न लगाना अथवा आरती न करना धर्मनिरपेक्षता कहाँ से
हो गई? यदि मुस्लिमों से मजहब के नाम पर, साम्प्रदायिकता के नाम पर, किसी एक
पदासीन व्यक्ति के कहने से किसी दल विशेष को वोट करना धर्मनिरपेक्षता हो सकती है
तो हिन्दुओं से वोट देने की अपील सांप्रदायिक कैसे हो सकती है?
.
इन राजनैतिक दलों ने
पूरे देश को इसी तरह के छोटे-बड़े मामलों में बाँट रखा है और इससे उत्पन्न होने
वाली किसी भी समस्या को सुलझाने से बजाय वे और उलझाने में लगे हैं. इस उलझन को
बढ़ाने में राजनैतिक दलों के साथ-साथ देश का तथाकथित धर्मनिरपेक्ष समूह, तथाकथित
बुद्धिजीवी वर्ग भी महती भूमिका निभा रहा है. एक राजनीतिज्ञ मंच से कारसेवकों पर
करवाई गई गोलीबारी को याद दिलाते हुए धमकाते सा हैं तो एक दूसरे महाशय हैं जो देश
भर में फैलते जा रहे इस्लामिक आतंकवाद को १९९२ के बाबरी विध्वंस से जोड़ते हैं और
उस घटना की प्रतिक्रिया बताते हैं. कितना हास्यास्पद है, यदि बाबरी ध्वंस की
प्रतिक्रिया आज २२ साल बाद भी हिंसा, आतंक, बम-विस्फोट से व्यक्त की जा रही है तो
फिर गोधरा-कांड से उपजी एकमात्र प्रतिक्रिया ‘गुजरात दंगे’ को भी जायज़ ठहराना
पड़ेगा. यदि आठ माह पुराने बयान पर जेल जाने वाले का विरोध करना और उस बयान को भुलाते
हुए महोदय को चुनाव लड़ने की अपील चुनाव आयोग करना धर्मनिरपेक्षता है तो फिर २२
वर्ष पुराने अयोध्या मामले को, १२ साल पुराने गुजरात दंगों को भी भुलाकर धर्मनिरपेक्षता
का परिचय इन नेताओं को देना चाहिए. लेकिन ऐसा कुछ नहीं हो रहा, इन दो मामलों का
नाम ले-लेकर न सिर्फ भाजपा को बल्कि सम्पूर्ण हिन्दू समाज को सांप्रदायिक बताया
जाने लगता है.
.
वोट की राजनीति में
राजनैतिक दल बुरी तरह से घिरे हैं और मतदाता आज़ादी के छह दशक से ज्यादा गुजर जाने
के बाद भी स्वप्न के आधार पर. कपोल-कल्पनाओं के आधार पर, मुफ्तखोरी के आधार पर
मतदान करने निकल पड़ता है. मुफ्त बिजली, मुफ्त पानी, मुफ्त लैपटॉप, मुफ्त टेबलेट,
बेरोजगारी भत्ता आदि के चक्कर में मतदाता अपना वोट कहीं भी पटक देने को तैयार रहता
है. ऐसे मतदाताओं से धर्म-मजहब-जाति से ऊपर उठकर वोट देने की बात सोचना भी बेमानी
है. राजनैतिक दल इस बात को बखूबी समझते हैं, इसी कारण एक मौलाना का वोट देने की
अपील धर्मनिरपेक्ष बनी रहती है जबकि किसी छोटे से मंदिर के पुजारी का हिन्दू शब्द
बोलना भी घनघोर सांप्रदायिक हो जाता है.
.
जब तक व्यक्ति विशेष को वोट मात्र समझा जायेगा यही हाल रहेगा।
जवाब देंहटाएं