शिक्षा के
उठते-गिरते स्तर के बीच शिक्षक दिवस औपचारिकता के साथ मनाया जायेगा. कुछ सेवानिवृत
शिक्षकों का सम्मान किया जायेगा, कुछ जुगाड़धारी शिक्षकों को भी सम्मानित कर दिया
जायेगा. अब शिक्षक दिवस का आयोजन सम्मान के लिए, छोटे-बड़े पदक, सम्मान-पत्र हासिल
करने भर के लिए किया जाने लगा है. विकास की रफ़्तार के दौर में शिक्षा क्षेत्र में
जिस तरह से गिरावट आ रही है उसने शिक्षकों के प्रति सम्मान-भाव समाप्त ही किया है.
शिक्षकों के प्रति सम्मान में कमी आम जनता में, अभिभावकों में देखने को तो मिल ही
रही है, स्वयं विद्यार्थी भी अब सम्मान करते नहीं देखे जाते हैं. ये आकलन करना
मुश्किल होता जा रहा है कि शिक्षक-शिक्षार्थी संबंधों में पतन का दोषी किसे माना
जाये.
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प्राथमिक स्तर से
लेकर उच्च शिक्षा तक लगभग सभी जगह गिरावट का माहौल देखने को मिल रहा है. प्राथमिक
स्तर का शिक्षक कुछ ले-देकर स्कूल जाने से बचने की, पढ़ाने से बचने की कोशिश में
लगा रहता है. मिड-डे-मील के समायोजन में, स्कूल की इमारत बनवाने के गुणा-भाग में उसकी
संलिप्तता को देखा जा सकता है. माध्यमिक स्तर के शिक्षकों को राजनीति करने की
जबरदस्त छूट होने के कारण अधिसंख्य शिक्षक बजाय अध्यापन के राजनीति करने में
व्यस्त रहते हैं. अलग-अलग गुटों से, राजनैतिक दलों से जुड़े होने के कारण शिक्षा अधिकारियों
द्वारा इन पर अंकुश लगा पाना संभव नहीं हो पाता है. कमोबेश राजनीति, अध्यापन से
बचने की प्रवृत्ति उच्च शिक्षा में भी पाई जा रही है. यहाँ शिक्षकों के साथ-साथ
विद्यार्थी भी राजनीति से जुड़ा हुआ होता है, इस कारण स्थिति में और भी विकृतता आ
जाती है. राजनैतिक दलों द्वारा समय-समय पर छात्र-संगठनों को सहयोग देने से भी कई
बार अराजकता की स्थिति महाविद्यालयों/विश्वविद्यालयों में उत्पन्न हो जाती है.
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शिक्षा क्षेत्र में निजी संस्थानों के अंधाधुंध
रूप से खुल जाने के कारण उनका उद्देश्य बजाय शिक्षा के धनार्जन करने का हो गया है.
विद्यार्थियों के मन में, अभिभावकों के मन में अपने संस्थान के प्रति बेहतर छवि
प्रस्तुत करने की लालसा होती है जिसके चलते अधिसंख्यक शिक्षण-संस्थान नक़ल जैसी
अराजक स्थिति उत्पन्न करते हैं. येन-केन-प्रकारेण उन्हें अपने विद्यालय का परिणाम
बेहतर चाहिए होता है. डिग्री देना, विद्यार्थियों को उत्तीर्ण कर देना सभी
संस्थानों का एकमात्र उद्देश्य बनता जा रहा है. ऐसे हालातों में जहाँ विद्यार्थी
पढ़ने के लिए आने से बचता है वहीं शिक्षक वर्ग भी अध्यापन से विरत बना रहता है. शिक्षक
दिवस की महत्ता को, इसके मूल में छिपे शिक्षाविद् को तो लगभग विस्मृत ही कर दिया
गया है. आखिर सोचा जा सकता है कि जब शिक्षा को ही महत्त्व नहीं दिया जा रहा है तो
उस शिक्षाविद् को क्या महत्त्व दिया जायेगा, जिसके सम्मान में हम सब इस दिवस को
मनाते हैं. शिक्षा के प्रति सरकारी, सामाजिक उपेक्षा का ही परिणाम है कि हम आज भी
विश्व के सर्वश्रेष्ठ शैक्षिक संस्थानों में अपनी उपस्थिति दर्ज नहीं करा पाए हैं.
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