24 सितंबर 2013

हिंगलिश से क्षतिग्रस्त होती हिन्दी भाषा




संप्रेषणीयता की सहजता के लिए भाषा का विकास किया गया और फिर नए-नए शब्दों की, उनके अर्थों की लगातार खोज की जाने लगी. इन्सान विचार-सम्प्रेषण के लिए जैसे-जैसे भाषा पर, शब्द पर अधिक से अधिक निर्भर होता रहा वैसे-वैसे वो शब्द-भंडार को भी समृद्ध करता रहा. शब्दों को गढ़ने के साथ-साथ वह अन्य भाषाओं के शब्दों को भी आत्मसात करता रहा. गौरवशाली संस्कृत से उत्पन्न शब्दों के कारण हिन्दी शब्द-भण्डार दूसरी भाषाओं के शब्द-भण्डार से कहीं अधिक समृद्ध रहा है. आम बातचीत पर यदि ध्यान दिया जाये तो उसमें हिन्दी के साथ अंग्रेजी, उर्दू, अरबी, फारसी आदि शब्दों का मिश्रण दिखता है जो वार्तालाप को प्रवाहमान बनाता है. इन भाषाओं के साथ-साथ दूसरी भाषाओं के शब्द भी हिन्दी के साथ इतनी आसानी से घुले-मिले हैं कि उनमें विभेद कर पाना आसान नहीं होता है. अंग्रेजी का भी कुछ ऐसा ही हाल है, उदाहरण के रूप में प्लेट, बोतल, ट्रेन, प्लेटफ़ॉर्म आदि को लिया जा सकता है. हिन्दी शब्दों की अनुपलब्धता के कारण इन शब्दों का प्रयोग हुआ होगा किन्तु अंग्रेजी ने कहीं अधिक आगे आकर हिन्दी पर अतिक्रमण करना शुरू कर दिया.
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शब्दों का सम्मिलन सुखद होता है क्योंकि इससे सम्बंधित भाषा का शब्द-भंडार विस्तृत-व्यापक होता है. अंग्रेजी-शब्दों कोई संकट हिन्दी को से तब तक नहीं लगा जब तक कि उसने शब्द-भंडार बढ़ाने का कार्य किया. समस्या उस समय उत्पन्न हुई जब अंग्रेजी-शब्दों ने लोगों की बातचीत के साथ-साथ लोगों के दिमाग पर अधिकार करना शुरू किया. रोजमर्रा की बातचीत में लोगों ने हिन्दी-शब्दों को किनारे कर अंग्रेजी-शब्दों को स्वीकार करना शुरू किया. अंग्रेजी अतिक्रमण का आलम ये हुआ कि अब घर में चाचा-चाची की जगह पर अंकल-आंटी खड़े दिखते हैं; मम्मी-पापा ने अम्मा-पिताजी को परिवार से बाहर कर दिया है; बच्चों को चावल, रोटी, दूध, पानी की नहीं बल्कि राईस, ब्रेड, मिल्क, वाटर की चाह होती है; वे सेब, आम नहीं बल्कि एप्पल और मैंगो खाते हैं; गाय, बकरी से वे परिचित नहीं होते बल्कि काऊ, गोट ही उन्हें समझ आती है. ऐसे अंग्रेजी शब्दों का जबरन घालमेल हिन्दी शब्द-भंडार को नष्ट ही कर रहा है.
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अंग्रेजी शब्दों का हिन्दी शब्दों के साथ होता ये जबरिया अतिक्रमण बातचीत में भी साफ़ तौर से दिखाई पड़ता है. यहाँ हमें याद रखना होगा कि किसी शब्द विशेष के न होने की स्थिति में उसका स्थानापन्न दूसरी भाषा से लिया जा सकता है किन्तु जब उचित शब्द उपस्थित हो तो अंग्रेजी का जबरन प्रयोग हिंग्लिश बना उसको विद्रूपता तक ले जाता है. दरअसल हम हिन्दीभाषी अपने आपको बुद्धिजीवी दर्शाने के लिए जबरन अंग्रेजी का प्रयोग करते हैं. हिन्दी के इक्का-दुक्का शब्दों की अनुपलब्धता होने पर उनके स्थान पर अंग्रेजी प्रयोग को स्वीकार किया जा सकता है किन्तु उसकी हर एक दो शब्दों के बीच उपस्थिति भाषा को विकृत करती है. यदि इसे नियंत्रित न किया गया तो निश्चित ही ये अवस्था किसी दिन हिन्दी शब्द-भण्डार को संकटग्रस्त स्थिति में पहुँचा देगी.

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