18 सितंबर 2013

आपसी सामंजस्य से समस्या का मूल समझना होगा




बलात्कार जैसे कुकृत्य के एक आरोपी को अभी पकड़ा ही नहीं जा पाता है कि कहीं दे दूसरी वारदात की खबर सामने आ जाती है. यौन-कुंठित व्यक्ति लगातार, हर पल मासूम बच्चियों को, महिलाओं को, वृद्ध महिलाओं को अपना शिकार बना रहे हैं. विद्रूपता तो ये है कि समाज की तरफ से ऐसे कुकृत्यों पर भी खेमेबाजी की जाने लगती है. महिलाएं पुरुषों को गालियाँ देने में लग जाती हैं और पुरुष महिलाओं के पहनावे को कटघरे में खड़ा करने लगते हैं. अकारण, बिना परिस्थितियों को समझे एक-दूसरे पर दोषारोपण करने से इस कुकृत्य पर न तो रोक लग रही है और न ही कोई कमी आ रही है, हाँ, अपराधी निर्द्वन्द्व होकर महिलाओं-बच्चियों को लगातार शिकार बनाता जाता है और विडंबना ये कि वर्तमान में गैंग-रेप की वारदातों में जबरदस्त वृद्धि हुई है. समझा जा सकता है कि इन अपराधों की रोकथाम करने वाले संगठित नहीं हुए हैं जबकि ये अपराधी और सशक्त होकर सामने आते जा रहे हैं.
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इस समस्या का हल कठोर कानून के बनाने से नहीं, उसके अमल में लाने से होगा; मोमबत्तियां जलाकर सड़कों पर कुछ समय का टहलना नहीं, सड़कों पर जागरूक होना पड़ेगा; पुरुष-महिला को आपसी दोषारोपण के स्थान पर आपसी सामंजस्य बनाना पड़ेगा; समस्या के ऊपरी रूप पर नहीं, इसके मूल में चोट करनी पड़ेगी. ये समझना पड़ेगा कि आज की उपभोक्तावादी संस्कृति में चकचौंध भरे विज्ञापनों में सिर्फ और सिर्फ स्त्री-देह दिखाया जाना यौन-कुंठित व्यक्तियों के लिए उत्प्रेरक का कार्य करता है. विज्ञापन कुछ भी हो उसके पीछे स्त्री की मांसल-देह के दर्शन कई बार अश्लील रूप में, फूहड़ तरीके से प्रदर्शित होती है. विज्ञापनों के साथ-साथ केबिल संस्कृति, इंटरनेट माध्यम में कार्यक्रमों की अशोभनीय प्रस्तुति, रीमिक्स संगीत में फूहड़ता, युगल कलाकारों की मादक और अश्लील भाव-भंगिमा मन-मष्तिष्क में नारी देह के प्रति कामुक भावनाओं को पैदा करती हैं. फिल्मों, धारावाहिकों, गीतों, विज्ञापनों के माध्यम से सर्वसुलभ, सहज और अनिवार्य सी लगने वाली नारी-देह, यौन-सम्बन्ध जब यौन-पिपासु व्यक्ति की पहुँच से बाहर हो जाते हैं, दुर्लभ हो जाते हैं तब इसके प्रत्युत्तर में उपजी यौन-कुंठा, काम-वासना की पूर्ति वह किसी भी रूप में करना चाहता है. इसी चाहना का दुष्परिणाम बच्चियों, असहाय महिलाओं, कमजोर स्त्रियों, लड़कियों के साथ बलात्कार, गैंग-रेप के रूप में सामने आता है.
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इसके अतिरिक्त आधुनिकीकरण के इस दौर में नवयुवकों को स्वतंत्रता का पर्याय उच्चश्रृंखलता ही समझ आता है. देर रात नाईट क्लबों में थिरकते, शराब के नशे में लड़खड़ाते, धुंए के छल्लों में गम होते, पार्कों के अँधेरे कोने में प्यार बटोरते, होटलों के बंद कमरों में देह की पैमाइश करते युवा वर्ग से किसी भी सकारात्मकता की उम्मीद नहीं की जा सकती है. इस वर्ग में लड़के-लड़कियां दोनों ही शामिल हैं. बात-बात में प्रेम-सम्बन्ध के बनने और फिर उनके शारीरिक संबंधों तक पहुँच कर टूट जाने की अनेक कहानियाँ शहरों की सड़कों पर, कूड़े के ढेर पर पड़ी दिखाई देती हैं. इस तरह की जीवनशैली भी हताशा-निराशा-कुंठा पैदा करती है और ये भी कहीं न कहीं सहयोगी महिला के साथ, सहपाठी लड़की के साथ, सुनसान जगह पर विचरण करते अकेले युगल के साथ कुकृत्य के रूप में सामने आती है.
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कारण और भी हैं, हो सकते हैं किन्तु बजाय इनकी चर्चा होने के आपसी बहस शुरू हो जाती है. कुछ मानसिक दीवालिया लोगों के बयानों को महत्त्वपूर्ण बनाकर असल मुद्दे को गौड़ कर दिया जाता है. हमें अपने आसपास और अधिक सतर्क रहने की जरूरत है. अपनी बच्चियों को बजाय डराने-घबराने के उनमें आत्मविश्वास भरने की जरूरत है. उनको समझाने की जरूरत है कि मुश्किल वक्त में घबराने से नहीं हौसला रखने से अपराधी पस्त होगा. घर के बिगड़ते बेटों को समझाने की जरूरत है कि जिंदगी क्लब, शराब, धुंए, सेक्स में उड़ाने के लिए नहीं. उनको बताने की आवश्यकता है कि जितनी महत्वपूर्ण उनकी जिन्दगी है उतनी ही गरिमामय जिन्दगी किसी लड़की की है. लड़के-लड़कियों को समझना होगा कि एक पल के मौज-मजे के लिए समूची जिन्दगी से खिलवाड़ किया जाना उचित नहीं. अभिभावकों को भी समझना होगा कि आधुनिकता के वशीभूत उनके बेटे-बेटियों द्वारा उठाया जाने वाला प्रत्येक कदम सुखकारी नहीं होता. स्त्री-पुरुष दोनों को समझना होगा कि आपसी वैमनष्यता से कोई हल नहीं निकलने वाला, उसके लिए सामंजस्य अत्यावश्यक है.
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