खाद्य सुरक्षा बिल
सदन में प्रस्तुत कर ही दिया गया और कहीं न कहीं फिर से एक और योजना भ्रष्टाचार के
लिए पेश कर दी गई. इसके पक्ष में सरकार और उसके समर्थकों द्वारा तर्क दिया जा रहा
है कि इससे गरीबों को भोजन आसानी से सस्ती दरों पर उपलब्ध हो सकेगा. बेशक, ये
योजना अपने आपमें अच्छी हो सकती है, गरीबों के लिए लाभकारी हो सकती है, उनके
भरण-पोषण में मददगार हो सकती है किन्तु इसके सफल क्रियान्वयन पर सिर्फ संदेह ही
नहीं है, घनघोर संदेह है. इस योजना के पूर्व भी नागरिकों के विकास के लिए, गरीबों
के विकास के लिए, मजदूरों के विकास के लिए, बच्चों के विकास के लिए सैकड़ों
योजनायें प्रस्तुत की जा सकी हैं और उनमें से अधिसंख्यक योजनाओं की परमगति असफलता
की तरफ ही रही है. देश की आज़ादी का जश्न मनाने वाले माह में तमाम पुरानी योजनाओं
का विश्लेषण करने के बजाय मजदूरों के लिए चल रही मनरेगा और बच्चों (विशेष रूप से
गरीब ग्रामीण) के लिए चल रही मिड-डे-मील योजना का हश्र देख लिया जाए, सारी कहानी
स्पष्ट हो जाती है.
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मिड-डे-मील योजना से
बच्चों को भले ही फायदा न पहुँचा हो किन्तु इससे सम्बंधित अधिकारी-कर्मचारी-ग्राम प्रधान-प्रधानाध्यापक
अवश्य ही लाभान्वित हुए हैं. इसके विस्तार में जाने की आवश्यकता कतई नहीं है
क्योंकि इस योजना की असलियत जगजाहिर है. भोजन का सही से न बनाया जाना, सफाई न
रहना, नियमित रूप से भोजन न बनना, शासन की तरफ से आते राशन, कन्वर्जन कोस्ट का
बंदरबांट आदि वे बिंदु हैं जिनके आलोक में मिड-डे-मील योजना का सत्य जाना जा सकता
है. इसी तरह से मजदूरों का भला करने के लिए, उनको एक निश्चित समयावधि के लिए रोजगार
उपलब्ध करवाने की दृष्टि से नरेगा योजना को लागू किया गया था. नरेगा की जबरदस्त
असफलता के बाद इसमें ‘गाँधी जी’ को जोड़कर इसे मनरेगा बना दिया गया किन्तु इसका
परिणाम ज्यों का त्यों रहा. इस योजना में भी भारी-भरकम घोटाला, भ्रष्टाचार करके
मजदूरों के साथ खिलवाड़ किया गया तो अधिकांश जगहों पर बिना काम के ही मजदूरी का
बंदरबांट मजदूरों के साथ किया गया. बैंक खाते के द्वारा भुगतान के प्रयास भी इस
योजना में चलने वाले भ्रष्टाचार को नहीं रोक सके.
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सरकार की उक्त दो
योजनायें बच्चों के, मजदूरों के विकास के लिए बनी थी और इनका उद्देश्य भी व्यापक
था, स्पष्ट था. इसके बाद भी योजना के क्रियान्वयन के लिए जिम्मेवार
अधिकारियों-कर्मचारियों-जनप्रतिनिधियों ने दोनों महत्त्वपूर्ण योजनाओं को असफल ही
बना दिया. ऐसे में जबकि देश में सकारात्मक कार्य करने की प्रवृत्ति लगभग समाप्ति
पर है; ईमानदारी की सजा निलंबन है, मौत है; मानसिकता में घूसखोरी, रिश्वतखोरी,
भ्रष्टाचार, घोटाला शामिल होता जा रहा है; योजनाओं के लक्ष्य-समूहों के प्रति कोई
संवेदना नहीं है तो फिर क्या बच्चे, क्या मजदूर और क्या गरीब. सरकार को खाद्य
सुरक्षा बिल पर अतिशय जल्दबाजी दिखाने से बेहतर था कि इसके क्रियान्वयन सम्बन्धी
सभी कमजोर पक्षों का निदान कर लिया जाता. उक्त दो महत्त्वपूर्ण योजनाओं से सबक
लेकर इस योजना के क्रियान्वयन को लेकर मापदंड मजबूत कर लिए जाते. सरकार को ध्यान
रखना चाहिए कि ये योजना गरीबों के भोजन से, जिजीविषा से सम्बद्ध है. जिस देश के
योजना आयोग गरीबी की नई परिभाषा रच रहा हो, मंत्रीगण भोजन को चंद रुपयों में
सहज-सुलभ बना रहे हों वहाँ जरूरतमंद नागरिकों को खाद्य सुरक्षा मिल पाना संदिग्ध
ही है.
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