आधुनिकता के आगोश में
जाते समाज में आये दिन नई-नई अवधारणाओं का जन्म होता रहता है, तमाम सारी अवधारणाओं
का लोप होता रहता है. विकास-गति को प्राप्त करने के लिए समाज की सबसे छोटी इकाई,
मनुष्य, अपने क्रिया-कलापों को नित नए आयाम देता है. इन्हीं आयामों, क्रिया-कलापों
के मध्य बहुत कुछ ऐसा होता है जो उससे कहीं दूर होता जाता है, वह खुद भी उनसे दूर
होता जाता है. इसी दूर होती स्थितियों में एक अंग ‘परिवार’ भी है, जो हर आने वाले
पल में मनुष्य से दूर हो रहा है या फिर कहें कि मनुष्य परिवार से दूर होता जा रहा
है. परिवार मनुष्यों से दूर हो रहे हों या फिर मनुष्य परिवार से दूर जा रहा हो, दोनों
ही स्थितियों में सुखद नहीं कही जा सकती हैं.
.
परिवार ऐसी अवधारणा
है जिसने मनुष्य को संरक्षण, संवर्धन, पल्लवन, समर्पण, सुरक्षा, विश्वास,
आत्म-विश्वास, सहयोग आदि की शिक्षा दी है. विकास-क्रम के लगातार विकसित होते रहने
से समाज का, मनुष्य का विकास होते तो दिखा किन्तु परिवार छिन्न-भिन्न होता दिखा
है. संयुक्त परिवार की अवधारणा अब नगण्य रूप में ही देखने को मिलती है. परिवार के
नाम पर पति-पत्नी और उनके बच्चे ही स्वीकार्य हो चुके हैं, बाकी रिश्तों का समावेश
दुरूह सा लगने लगा है. परिवार के इस तरह से नाभिकीय रूप लेते जाने का सबसे ज्यादा
असर बच्चों पर ही हुआ है. उनके विकास, उनकी सोच, मानसिक स्थिति, आत्मविश्वास,
सामूहिकता, व्यवहार, समायोजन आदि पर इसका नकारात्मक असर देखने को मिला है. यही
कारण है कि आज जबकि माता-पिता और उनके बच्चों के बीच दोस्ताना सम्बन्ध है फिर भी अधिकांश
बच्चे हताशा, निराशा, नकारात्मकता से ग्रस्त दिखते हैं. यही स्थितियां उन्हें नशे,
अपराध, हिंसा यहाँ तक कि आत्महत्या की ओर धकेलती हैं.
.
आज की आपाधापी भरी
जिंदगी में जब मनुष्य ने अपने लिए समय निकालना बंद सा कर दिया है तब उसके द्वारा
अपने तमाम रिश्तों के लिए समय निकालना, उन रिश्तों को अहमियत देना एक कठिन कार्य
सा लगता है. जिस तरह से समाज में अपराधों का, हिंसा का, कुंठा का, वैमनष्यता का, नकारात्मक
वृत्ति का, मानसिक गिरावट का, चारित्रिक पतन का, सांस्कृतिक पतन का दौर देखने को
मिल रहा है उसका निदान बहुत हद तक परिवार में ही छिपा है. आज मनुष्य छोटी-छोटी
परेशानियों में उलझ कर अपने जीवन को अवसादग्रस्त बना रहा है जबकि ये एक सत्य है कि
तमाम सारी समस्याएं, परेशानियाँ परिवार के सामंजस्य से, सहयोग से बहुत छोटे रूप
में ही सुलझ जाया करती हैं. पब, डिस्को, बार, पार्टियों के माध्यम से खुशियाँ
तलाशते मनुष्य को शायद अंदाज़ा नहीं होगा कि परिवार के सदस्यों के साथ मिलजुलकर छोटे-छोटे
से आयोजन, पर्व भी अप्रत्याशित ख़ुशी, उल्लास, उमंग प्रदान करते हैं. अंधाधुंध विकास
की अंधी दौड़ में शामिल हो चुके मनुष्य को समझना होगा कि ऐसा विकास क्षणिक ख़ुशी दे
सकता है, दीर्घकालीन सुख नहीं; इस तरह का एकाकी विकास मनुष्य को प्रतिष्ठित बना
सकता है, उसे आत्मिक संतुष्टि नहीं दे सकता है. सर्वोच्चता के शिखर पर जा बैठा
इन्सान अपने आपको भले ही किसी घेरे में समेटकर विकास का प्रतिमान बनाने लगे पर परिवार
की अनुपस्थिति में वह खुद को तन्हा, अकेला, असुरक्षित ही है, भले ही अहंकार,
भौतिकतावाद, आधुनिकता में वह इस बात को न स्वीकारे.
.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें