पहली बार आधी रात को
तिरंगा फहराते समय हवा हमारी थी, पानी हमारा था, जमीन हमारी थी, आसमान हमारा था. गर्व
के साथ-साथ तब जन-जन की आँखों में नमी थी. अपने प्यारे तिरंगे को पहली बार खुली
हवा में सलामी देने के लिए उठे हाथों में एक कम्पन था मगर आत्मा में दृढ़ता थी,
स्वभाव में अभिमान था, स्वर प्रसन्नता से भरे थे, सिर गर्व से ऊपर उठे हुए थे. तिरंगा
हमेशा फहराया जाता रहा, हर वर्ष फहराया जाता रहा, सलामी हर बार दी जाती रही किन्तु
गर्व से भरा सिर हर बार झुकता रहा, आत्मा की दृढ़ता हर बार कम होती रही. यह एहसास
साल दर साल बढ़ता ही रहा. हाथों का कम्पन, आँखों के बहते आंसू हर बार तेज़ी से बढ़ते
रहे. पहली बार हमारे हाथों का कांपना हमारे स्वाभिमान का परिचायक था, अब यही कम्पन
हमारे नैतिक, चारित्रिक पतन को दिखा रहा है. पहली बार बहते हुए आँसू ख़ुशी के थे
मगर अब लाचारी, बेबसी, हताशा, भय, आतंक, अविश्वास के हैं.
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लहराता प्यारा
तिरंगा हर बार हमसे हमारी स्वतंत्रता का अर्थ पूछता है, शहीदों के सपनों का सच
होना पूछता है. हम हर बार निरुत्तर हो जाते हैं. क्या हम शहीदों के सपनों को सच कर
पाए हैं? शिक्षा के लिए भटकते लोगों को किताब-कलाम के स्थान पर हथियार थमा दिए.
पानी को नजरंदाज़ करके हाथों में जाम थमा दिए गए. कलात्मक हाथों को विध्वंसकारी बना
दिया गया. विकास की ऐसी स्थिति हमारे शहीदों का सपना नहीं थी. स्वतन्त्र भारत पर
जाति, धर्म, वर्ग विशेष का अधिकार उन्होंने नहीं चाहा था. गर्व करने वाली संस्कृति
के स्थान पर पश्चिमी अन्धानुकरण उन्होंने नहीं माँगा था. हमारी सोच संकुचित हुई
है, रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार, आतंकवाद, भाई-भतीजावाद, जातिवाद, क्षेत्रवाद हम पर
हावी हो चुका है.
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जब भी सामने लहराता
हुआ तिरंगा देखते हैं तो उन शहीदों की याद आती है, उनके सपनों की तस्वीर नजर आती
है. यही कारण है कि हम अब लहराते तिरंगे से अपनी आँखें नहीं मिला पाते. सलामी देने
को उठते हाथों में कम्पन साफ़-साफ़ दिखाई देता है. सिर गर्व से उठा नहीं रहता है. ‘जयहिन्द’
‘वन्देमातरम’ की आवाज़ हमारे कंठ से बाहर नहीं निकल पाती. हमारी बेबसी, वीर शहीदों
की शहादत से किया गया विश्वासघात हमें भीतर तक कंपा जाता है. उनके सपनों को
चूर-चूर कर डालने की हमारी प्रवृत्ति हमें शर्मिंदा करती है मगर हम फिर भी नहीं
सुधरते. प्रतिवर्ष तिरंगे के सामने कुछ पल सिर झुका कर अगले वर्ष सुधार लाने की
सोचकर पुनः आकंठ बुराई में डूब जाते हैं. क्या हम कभी औपचारिकताओं का त्याग कर
उनकी चिताओं पर मेले लगने का उनका स्वप्न कभी पूरा कर सकेंगे? कभी तिरंगे को सच्ची
सलामी देने की हिम्मत जुटा सकेंगे? प्रत्येक देशवासी को स्वयं से ये सवाल पूछने
होंगे.
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