ऐसे समय में जबकि सरकार
नितांत असहाय सी दिख रही है, कानून लचर सा प्रतीत हो रहा है, शासन-प्रशासन पंगु
समझ आ रहा है, अपराधी दुर्दान्त होते जा रहे हैं, महिलाएं-बच्चियाँ असुरक्षित होती
जा रही हों तब बजाय सरकार का, कानून का मुँह ताकने के व्यक्ति को पारिवारिक स्तर
पर स्वयं कोई ठोस कदम उठाने की जरूरत है. जब भी बलात्कार, छेड़छाड़ जैसी घटनाओं को
रोकने की चर्चा की जाती है तो सम्पूर्ण मुद्दा स्त्री-पुरुष पर, लड़कियों-लड़कों पर
केन्द्रित होकर रह जाता है. पहनावा, रहन-सहन, स्वतंत्रता, परिवार, संस्कृति,
सभ्यता, नौकरी आदि पर पूरा विमर्श टिक कर किसी सकारात्मक परिणाम को सामने नहीं आने
देता है. हमारी आपसी स्त्री-पुरुष सम्बन्धी बौद्धिक खाई अपराधियों के हौसले और
बुलंद करने में मदद करती है. यही कारण है कि आज घर के बाहर ही नहीं घर में भी
महिलाएं, बच्चियाँ यौन-शोषण का शिकार हो रही हैं; बाहरी व्यक्तियों के साथ-साथ वे
करीबी रिश्तेदारों (यहाँ तक कि पिता-भाई) के द्वारा शोषित की जा रही हैं; अबोध
बच्चियों के साथ-साथ वृद्ध महिलाएं भी अपराधियों के हमलों का शिकार हो रही हैं. आज
आवश्यकता इस बात की है कि स्त्री-पुरुष विवाद को बढ़ाने के स्थान पर, एक-दूसरे पर
दोषारोपण करने के स्थान पर आपसी समझबूझ से पूरे मामले की गहराई तक जाकर उसका निदान
खोजा जाये.
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महिलाओं द्वारा हमेशा ही ऐसी
किसी भी घटना पर अपनी स्वतंत्रता की बात की जाती है, पुरुषों के अधीन अपना होना
माना जाता है, खुद को सदैव पुरुषों की निगाहों से परेशान किये जाने की चर्चा की
जाती है. यहाँ महिलाओं को स्वयं अपने आपको सबल बनाने के लिए आगे आना पड़ेगा. इस बात
को कुतर्क का, बहस का विषय न बनाया जाए पर ये सत्य है कि आज भी अधिसंख्यक परिवारों
में महिलाएँ कमरे के फ्यूज हुए बल्ब को बदलने जैसा काम भी नहीं करती हैं; मकान के
स्टोर से कोई सामान निकालना हो तो किसी पुरुष का सहारा खोजने का काम शुरू हो जाता है;
छिपकलियों, कोक्रोचों, चूहों से डर कर समूचे कामों को स्थगित कर देना इन महिलाओं
की प्राथमिकता में शामिल होता है. क्या इनके लिए भी पुरुष नियंत्रण लगाता है? घर की
लड़की को शिक्षा संस्थान में प्रवेश लेना है तो कोई पुरुष चाहिए; बाज़ार जाना है तो
पुरुष का होना अनिवार्य है; सहेलियों के घर जाना है तो घर का कोई पुरुष हो, कॉलेज
जाना है तो भी कोई पुरुष चाहिए. दरअसल पुरुष सत्तात्मक समाज में स्त्री पर जितना
अंकुश पुरुष ने लगाया है, महिलाएं भी उनसे कहीं पीछे नहीं रही हैं.
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आज इक्कीसवीं सदी को शुरू हुए
भी १३ वर्ष आये हैं और आज वैश्वीकरण के दौर में जन्मी पीढ़ी भी भली-भांति युवा होकर
सामने आई है. इसके बाद भी उसकी सोच में, विशेष रूप से लड़कियों में, खुद को सशक्त
बनाकर उभारने की मानसिकता ने जन्म नहीं ले सकी है. आज भी बहुसंख्यक लड़कियों का
सपना शिक्षा के नाम पर उच्च स्तर की कोई डिग्री हासिल करना और फिर विवाह करके परिवार
को सँभालने का होता है. अपने मानसिक स्तर को मजबूत करने के स्थान पर उसे और कमजोर
बनाया है; शारीरिक रूप से सशक्त होने के स्थान पर जीरो फिगर की चाह देखी जा रही
है; बोल्ड होने का तात्पर्य आत्मविश्वास बढ़ाने के बजाय कपड़ों के कम करने से लगाया
जाने लगा है; किसी विषम परिस्थिति के सामने आने पर उसका सामना करने के बजाय किसी
तारनहार की कामना की जाने लगती है. मेकअप में लिपटी, लिपीपुती ललनाओं से आज ये
अपेक्षा कतई नहीं की जा सकती है कि वे खुद को सशक्त बनाकर सामने ला पाएंगी. कोकरोच,
छिपकली से डरने वाली लडकियाँ किसी छिछोरे को क्या सबक सिखाएंगी, समझा जा सकता है. किसी
भी स्थिति के आने पर रोने के लिए बॉयफ्रेंड का कन्धा तलाशने वाली कोमलांगियों से मुसीबत
से लड़ने की कल्पना नहीं की जानी चाहिए. अब लड़कियों को, उनके परिवार को, माता-पिता
को लड़कियों को शारीरिक-मानसिक रूप से सशक्त बनाने की आवश्यकता है.
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(कृपया बात को समझिये,
संस्कार-संस्कृति से, लड़का-लड़की से जोड़कर मुख्य विषय को हाशिये पर न टिकाएं)
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