20 अगस्त 2013

आधुनिकता से परिपूर्ण दौर में संस्कृति, संस्कार, रिश्ते, मर्यादा, पावनता महत्त्वपूर्ण ही नहीं - 750वीं पोस्ट

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पिता ने बेटी के साथ दुष्कर्म किया, भाई ने बहिन की अस्मत लूटी, देवर ने भाभी का शारीरिक शोषण किया, चाचा-फूफा-मामा-मौसा आदि सहित तमाम रिश्तों के अपनी पारिवारिक महिला-बच्ची के साथ इस तरह की शर्मसार करने वाली ख़बरें लगातार नियमित रूप से हम सभी पढ़ रहे हैं. किसी समय में जब आत्मीय और निकटतम रिश्तों के द्वारा इस तरह के कुकृत्य किये जाने की खबर सुनाई देती थी तो मन व्याकुल हो उठता था. सम्बंधित खबर से व्यक्ति का सम्बन्ध न होने के बाद भी पीड़ित के प्रति संवेदना का भाव होता था और अपराधी के प्रति एक प्रकार का रोष, घृणा उत्पन्न होती थी. आज अतिशय रूप में ऐसी खबरों के आने ने समाज की स्थिति को तो सामने रखा ही है, व्यक्ति की सुसुप्तावस्था को भी जाहिर किया है. हाँ, कभी-कभी किसी मामले में दूध की तरह उबाल आकर शांत हो जाता है.
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इधर सोशल मीडिया में, बाज़ार में, मीडिया में रक्षाबंधन पर्व की पावनता का बखान किया जा रहा है; बुद्धिजीवी भाई-बहिन के रिश्ते की पावनता-मर्यादा को सबके सामने अपने-अपने अनुभव के साथ पेश कर रहे हैं; बहिनें उत्साह के साथ राखी की खरीददारी करने में लगी हुई हैं; भाई भी पूरे जीजान से बहिनों की रक्षा करने का प्रण लेने में लगे हुए हैं, ये सब महज एक दिन की कहानी सा लगता है. एक दिन का पर्व, एक दिन का उत्साह, एक दिन का अनुभव, एक दिन की मर्यादा, एक दिन की पावनता, एक दिन का प्रण....फिर वही हाल-चाल. ये स्थितियाँ कई बार निराशा पैदा करती हैं. आज जो बहिन बड़े उत्साह के साथ राखी खरीदने में लगी हुई है वही कल अकेले बाज़ार जाने से डरती है; आज जो भाई पूरे उत्साह से अपनी ही नहीं पूरे देश की बहिनों को बचाने का दम भरते दिखते हैं वे ही कल कहीं झुण्ड में किसी न किसी लड़की को छेड़ते मिलते हैं.
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आखिर पतन की ये स्थिति बन कैसे गई? रिश्तों में इस तरह की गिरावट आई कैसे? रिश्तों की पावनता-मर्यादा कहाँ गुम हो गई? आज रक्षाबंधन के उत्साह-उमंग में शायद इन सवालों के जवाब देने के लिए कोई समय भी न निकाले, हो सकता है इन हालातों को कोई स्वीकार करने को भी तैयार न हो पर सत्यता यही है. आज रक्षा करने वाले हाथ ही भक्षण करने में लगे हैं, अपने ही विश्वास का खून करने में लगे हैं, परिवार के लोग ही रिश्तों को दीमक की तरह चाट डालने को आतुर हैं. ऐसे में रक्षासूत्र बाँधने-बँधवाने से कोई हल नहीं निकलने वाला. रिश्तों में आई गिरावट को, पतन को रोकने के लिए मानसिक स्तर को मजबूत करना होगा, संस्कृति, संस्कार के सूत्र को मजबूत करना होगा....पर समस्या वही कि आज के भौतिकतावादी समय में, आधुनिकता से परिपूर्ण दौर में संस्कृति, संस्कार, रिश्ते, मर्यादा, पावनता लोगों के लिए महत्त्वपूर्ण रहे ही नहीं हैं.
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इस ब्लॉग पर ये हमारी ७५०वीं पोस्ट है.... :-)
 

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