आरक्षण के पक्ष-विपक्ष को लेकर वर्तमान में तलवारें ही खिंची
रहती हैं. आरक्षण का पक्ष लेने वाले इस व्यवस्था को वंचित तबके के लिए आवश्यक
बताते हैं तो इस व्यवस्था के विरोधी लोग इसे एक बुराई के रूप में परिभाषित करने
लगते हैं. आरक्षण पक्षधर लोगों का कहना है कि सरकारी नौकरियों में, पदोन्नतियों
में, शिक्षा में उनके वर्ग के लोगों के साथ पक्षपात, भेदभाव किया जाता रहा है
जिसको दूर करने के लिए, वंचितों को देश मी मुख्य-धारा में लाने के लिए आरक्षण
आवश्यक है. जबकि इसके उलट आरक्षण विरोधी तबका इसके दुरुपयोग की बात कहकर आरक्षण को
सही स्वरूप में लागू करने की वकालत करता है. दोनों पक्षों के अपने-अपने तर्क,
अपनी-अपनी बहस है पर आज जो हालात आरक्षण को लेकर समाज में बन गए हैं, समाज में
वर्ग-विभेद समाप्त होने के स्थान पर और तेजी से विकृत रूप लेकर विकसित हुआ है, उसे
देखते हुए आरक्षण को लेकर उत्पन्न विभ्रम, मतभेद को दूर करने की आवश्यकता है. दरअसल
आरक्षण देश के वंचित वर्ग को समान रूप से लाभ पहुँचाने की संवैधानिक व्यवस्था है
और इसको लेकर किसी भी तरह के विवाद को दूर करना भी संवैधानिक संस्थाओं का कर्तव्य
है.
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वर्तमान में आरक्षण को राजनैतिक हथियार के रूप में, एक रणनीति
के रूप में उपयोग किया जा रहा है जबकि ऐसा नहीं होना चाहिए. वंचित वर्ग को
लाभान्वित करने के लिए की गई व्यवस्था स्वार्थ-पूर्ति का हथियार बन कर रह गई है. आरक्षण
का पीढ़ी-दर-पीढ़ी लाभ उठाते आये लोग वंचित वर्गों के भीतर एक तरह के मठाधीश, कुलीन
वर्ग बनकर रह गए हैं. इस नवोन्मेषी वर्ग ने आरक्षण का लाभ अपने से नीचे वर्ग तक न
पहुँचने के कुप्रयास भी किये. इस सत्य को भले ही स्वीकार न किया जाए पर ये सौ
फ़ीसदी सत्य है कि वर्तमान में आरक्षण कुछ विशेष जातियों, विशेष परिवारों, विशेष
राजनैतिक दलों की बपौती सा बनकर रह गया है. शिक्षा, नौकरी, पदोन्नति, राजनीति आदि
जिन-जिन क्षेत्रों में आरक्षण व्यवस्था लागू है वहां आसानी से देखने को मिलता है
कि कैसे पीढ़ियों से आरक्षण उन्हीं के इर्द-गिर्द घूम रहा है. आरक्षण लाभान्वित
संपन्न परिवारों को जब भी आरक्षण की परिधि से बाहर निकल जाने का खतरा दिखा तब-तब
किसी न किसी राजनैतिक, प्रशासनिक जुगत से क्रीमीलेयर नामक व्यवस्था को अपने पक्ष
में करवाकर आरक्षण को अपने तक ही सीमित कर लिया.
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यदि आरक्षण समर्थक इस व्यवस्था का लाभ समस्त वंचित वर्ग तक
पहुँचाना चाहते हैं वे स्वयं इस बात का विरोध करें कि पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता आरक्षण
समाप्त किया जाए. आरक्षण के सहारे शिक्षा, सुविधा, धन से संपन्न हो चुके परिवार की
अगली पीढ़ी को आरक्षण का लाभ न दिया जाए (जब तक कि वो वाकई वंचित की अवस्था में न
हो). क्रीमी लेयर में छह लाख रुपये सालाना की सीमारेखा को कम किया जाये, सोचा जा
सकता है कि पचास हजार रुपये पाने वाले सुविधाएँ प्राप्त करने में वाकई असुविधा
होती होगी? राजनीति में भी आरक्षण का लाभ किसी एक व्यक्ति के परिवार तक सीमित न
रहे. दरअसल आरक्षण संपन्न वर्ग द्वारा जारी अवरोध के साथ-साथ राजनैतिक दलों द्वारा
उठाये जाने वाले विभेदकारी क़दमों से भी आरक्षण का लाभ समस्त वंचित वर्ग तक नहीं
पहुँच सका है. इस बात से किसी को इंकार नहीं होगा कि (उत्तर प्रदेश के सन्दर्भ
में) अन्य पिछड़ा वर्ग में और अनुसूचित जाति वर्ग में आरक्षण का लाभ (सम्पूर्ण लाभ)
किन-किन एक-दो जाति विशेष को ही उपलब्ध है. जातिगत राजनीति के सहारे आगे आने वाले
और आरक्षण का समर्थन करने वाले विशेष राजनैतिक दल खुद में अपने वर्ग की अन्य दूसरी
जातियों के लाभान्वित होने की दिशा में काम नहीं कर रहे हैं. इनका एकमात्र
उद्देश्य आरक्षण के सहारे अपनी-अपनी जातियों के वोट-बैंक से सत्ता प्राप्त करने का
रहता है. जबतक आरक्षण को उचित रूप में लागू करने की मंशा से काम नहीं किया जायेगा
तब तक समाज विभेदकारी स्थिति से बाहर नहीं निकल पायेगा. आरक्षण जैसी संवैधानिक
व्यवस्था के गलत उपयोग से उत्पन्न होता सामाजिक विभेद, वर्ग विभेद उस विभेदकारी स्थिति
से ज्यादा घातक है जिसे दूर करने के लिए आरक्षण को लागू किया गया.
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