बिहार में मिड-डे-मील से बच्चों की मृत्यु ने इस की खामियों
को एक बार फिर उजागर कर दिया. मिड-डे-मील में अव्यवस्था का ये कोई पहला मामला नहीं
है, देश में जहाँ ये योजना लागू है वहां से इसमें गड़बड़ियों की शिकायत लगातार मिलती
रही है. दरअसल समूची योजना को भले ही बच्चों को भोजन के माध्यम से शिक्षा देने के
लिए लागू किया गया हो पर उसके क्रियान्वयन में इस नीयत को कतई शामिल नहीं किया
गया. ये योजना अपने शुरूआती दौर से ही घनघोर भ्रष्टाचार का साधन बन गई. बच्चों की
संख्या के हिसाब से मिलती खाद्य सामग्री और रसोइयों को मिलने वाले मानदेय को
भ्रष्टाचार ने जकड़ लिया. भोजन पकाने को निश्चित मात्रा से कम सामग्री मिलना, समय
से मानदेय न मिलने से क्षुब्ध रसोइयों द्वारा पूरी तन्मयता से भोजन निर्माण न
करना, भोजन निर्माण-वितरण में स्वच्छता का ध्यान न रखना भी इस भ्रष्टाचार का
हिस्सा बन गए.
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मिड-डे-मील में जब भी गड़बड़ी मिली, शिकायत दिखी तो उसे प्रथम
दृष्टया भ्रष्टाचार माना गया, जबकि यह भ्रष्टाचार से कहीं अधिक बच्चों के प्रति
राजनैतिक तंत्र की, सत्ता-पक्ष की, प्रशासन की, स्वयं हमारी संवेदनहीनता का
परिचायक है. हमारे राजनैतिक तंत्र में हम मतदाताओं की कृपा-दृष्टि से ऐसे लोग
पहुँच गए हैं जिनका एकमात्र उद्देश्य कहीं से भी, कैसे भी अकूत धन पैदा करना है. ऐसे
लोगों में केन्द्रीय स्तर से ग्राम स्तर तक के जनप्रतिनिधि शामिल हैं, सत्ता पक्ष
से लेकर विपक्ष तक शामिल है, जनप्रतिनिधि से लेकर प्रशासनिक लोग शामिल हैं. खाद्य-सामग्री
का वितरण होने के पूर्व उसका बंदरबांट कर लिया जाता है. इसके अलावा भोजन सामग्री के
बाज़ार में बेच दिए जाने में भी राजनीति-प्रशासन का समुचित गठजोड़ देखने को मिलता
है. स्कूल स्टाफ द्वारा मिड-डे-मील में गड़बड़ी की शिकायत करने पर यदि उसको अपने
उच्चाधिकारियों द्वारा किसी तरह का सहयोग नहीं मिलता है तो उसके ग्राम-प्रधान द्वारा
प्रताड़ित किये जाने की आशंका रहती है. ऐसे में किसी भी तरह की धांधली पर स्कूल
स्टाफ चुप्पी लगा लेना ही बेहतर समझता है. इसके साथ-साथ शिक्षा विभाग के सम्बंधित
अधिकारियों-कर्मचारियों द्वारा भी चंद रुपयों की खातिर बच्चों के स्वास्थ्य, उनकी
जिंदगी से खिलवाड़ किया जाता रहता है.
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राजनैतिक, प्रशासनिक धांधलगर्जी के अलावा हम सभी की
संवेदनहीनता ने भी भ्रष्टाचार को बढ़ावा दिया. गांवों के माता-पिता अपनी गरीबी के
कारण भोजन की निम्न गुणवत्ता को जानने-समझने के बाद भी शांत रहते हैं. इसके पीछे उनके
बच्चों को भोजन मिलना तो एक कारण होता ही है साथ ही ग्राम-प्रधान से बैर मोल लेने
से बचना भी एक दूसरा कारण होता है. मजबूरी कितनी भी बड़ी क्यों न हो वो अपने बच्चों
की जिंदगी से बड़ी नहीं हो सकती. ऐसे में किसी भी माता-पिता द्वारा घटिया भोजन की
शिकायत न करना भी भ्रष्ट तंत्र को उत्प्रेरित ही करता है. इस आलेख के लेखक ने २००६-०७
में जनपद जालौन में मिड-डे-मील से सम्बंधित सर्वेक्षण कार्य स्वयं संपन्न किया था.
उस समय जो विषम परिस्थितियां, अव्यवस्थाएं देखने को मिली थीं, उनमें आज २०१३ में
सुधार होने के स्थान पर घनघोर गिरावट ही आई है. खाद्य-सामग्री का निम्न स्तर का
मिलना, रसोई की हालत का खस्ता होना, पेयजल की कमी अथवा होने पर उसका स्वच्छ न
होना, बर्तनों की उचित साफ़-सफाई न करना, भोजन निर्माण-वितरण के वातावरण का सामान्य
ढंग का न होना भी संवेदनहीनता को दर्शाता है. जब तक हमारा समाज, राजनैतिक तंत्र,
प्रशासन, हम सब बच्चों के प्रति संवेदनशील नहीं होंगे तब तक ये योजना घनघोर
भ्रष्टाचार का शिकार बनी रहेगी और हमारे बच्चे असमय मौत का शिकार बनाये जाते
रहेंगे.
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आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा शनिवार(20-7-2013) के चर्चा मंच पर भी है ।
जवाब देंहटाएंसूचनार्थ!
जब तक हमारा समाज, राजनैतिक तंत्र, प्रशासन, हम सब बच्चों के प्रति संवेदनशील नहीं होंगे तब तक ये योजना घनघोर भ्रष्टाचार का शिकार बनी रहेगी और हमारे बच्चे असमय मौत का शिकार बनाये जाते रहेंगे. .
जवाब देंहटाएंबिलकुल सही कहा है आपने, आज का समाज बच्चों के प्रति अपनी जिम्मेदारी से मुंह मोड़ रहा है, तो आने वाला कल कैसा होगा..जब ये बच्चे बड़े होंगे.