17 जुलाई 2013

पहचान-पत्र से 'एसिड अटैक' रोकने की कल्पना शेखचिल्लीपना




‘तेजाब खरीदने पर अब दिखाना होगा अपना पहचान-पत्र’ ये खबर भले ही राहत देती महसूस होती हो पर ऐसा वास्तविकता में है नहीं. उच्चतम न्यायालय के आदेश के बाद सुसुप्तावस्था में पड़ी केंद्र सरकार ने फौरी तौर पर एक कदम उठाकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली. बहुतायत में होते ‘एसिड अटैक’ में हर बार सरकार कड़े कदम उठाये जाने की बात कहती है किन्तु कोई भी कदम अभी तक नहीं उठाया गया था. वास्तविकता में देखा जाये तो तेजाबी हमले में हमलावर की, अपराधी की पहचान कर पाना उतना कठिन कार्य नहीं है, जितना कि पीड़िता को न्याय दिला पाना. ये बात सभी को भली-भांति मालूम है कि अधिसंख्यक तेजाबी हमलों में महिलाएं ही हमले का शिकार होती हैं और हमलावर उस पीड़िता का परिचित ही होता है. एकाधिक मामलों में ही ऐसा रहा होगा जबकि तेजाब से हमला करने वाला कोई किराये का व्यक्ति रहा हो, जिसकी पहचान पीड़िता या फिर उसके परिवारजनों द्वारा नहीं की जा सकी हो. ऐसे पहचानहीन मामलों में पहचान-पत्र अपराधी तक पहुँचने की कोई गारंटी नहीं देता बल्कि इस आदेश के बाद से एसिड बेचने वाले दुकानदार पुलिसिया उत्पीड़न का शिकार अवश्य होने लगेंगे. इसके उलट यदि हमलावर या अपराधी को पीड़िता या उसके परिवार के लोग पहचानते हैं तो फिर पहचान-पत्र के होने या न होने का क्या अर्थ निकलता है.

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बहुतायत मामलों में देखने में आया है कि हमले के बाद पीड़िता जहाँ जीवन-मृत्यु से जूझ रही होती है, उसके परिवार के लोग उसके इलाज, पुलिस के सवालों, अदालती मामलों से दो-चार हो रहे होते हैं वहीं हमलावर अपने वकील की तिकड़मी चालों की मदद से जमानत लेकर खुली हवा में स्वच्छंदता से विचरण कर रहा होता है. इस हृदयविदारक पीढ़ा को एक तरफ वो महिला सहती है तो दूसरी तरफ उसके परिवारीजन सम्बंधित अपराधी के कैद से बाहर निकल आने पर हताशा का अनुभव करते हैं. यदि दुर्भाग्य से हमलावर रसूखदार परिवार से या प्रभावशाली संपर्क से सम्बंधित होता है तो पीड़िता के परिवारीजन पीढ़ा के साथ-साथ भय का भी शिकार हो जाते हैं. कहीं न कहीं उन पर अपराधी पक्ष की तरफ से सम्बंधित मामले को वापस लेने, समझौता करने, कुछ ले-देकर मामला रफा-दफा करने का अनावश्यक दबाव डाला जाने लगता है. समझने की बात है कि एक तरफ पीड़िता और उसका परिवार कष्टों से लड़ रहा होता है और दूसरी तरफ अपराधी अपने कुकृत्यों के बाद भी सीनाजोरी दिखाने पर आमादा रहता है.

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इस तरह की विषम परिस्थितियों के बाद भी यदि पीड़िता और उसका परिवार अपराधी के सामने झुकता नहीं है तो भी उनके सामने नए सिरे से नई जिंदगी की शुरुआत करने की चुनौती खड़ी दिखती है. विकृत मानसिकता के किसी इन्सान के कुकृत्य का शिकार महिला अपने भविष्य को सजाने-सँवारने से अधिक अपने आत्मविश्वास को जुटाने के लिए संघर्ष करती दिखती है. अपने आपको एक-एक पल में उस घातक हमले की विभीषिका से मुक्त कर पाने की, खुद को पहले की भांति सक्रिय करने की, खुशनुमा जीवन को पुनः प्राप्त करने की जद्दोजहद करती है.

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इन विषम स्थितियों, हालातों का अनुभव करके विचार किया जाए तो पहचान-पत्र जैसा आदेश निरर्थक ही प्रतीत होता है. आज के विज्ञान अध्ययन के दौर में तेजाब मिलने की एकमात्र जगह दुकान ही नहीं है. शैक्षणिक संस्थानों की रसायन विज्ञान प्रयोगशालाओं में ‘एसिड’ भरपूर मात्रा में उपलब्ध होता है, जहाँ से उद्दण्ड लड़कों द्वारा इसे प्राप्त कर लेना कदापि मुश्किल कार्य नहीं है. इसके अलावा हमारे समाज में जिस तरह से बड़े-बड़े काम धन-बल की मदद से आसानी से निपटा लिए जा रहे हैं; जुगाड़ तकनीक के सहारे हर बंधन की काट खोज ली जाती है; अपने रसूख, बाहुबल, शस्त्रबल के आतंक के सहारे शासन-प्रशासन तक को निम्न-कोटि का साबित कर दिया जाता है वहां ये कल्पना करना मुश्किल प्रतीत हो रहा है कि एक ‘बेचारा’ दुकानदार किसी को भी बिना पहचान-पत्र के ‘एसिड’ नहीं दे रहा होगा?

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सरकार और सरकार के पिछलग्गू अंग इस आदेश के बाद भले ही अपनी पीठ थपथपाने का काम करने लगें पर इस आदेश से ‘एसिड अटैक’ के मामलों में रत्ती भर भी गिरावट आएगी, ऐसा सोचना शेखचिल्लीपन ही होगा. सरकार ऐसे कानून बनाये कि किसी भी हालत में अपराधी को जमानत न मिल सके, नाबालिग-अर्धविक्षिप्त-मानसिक रोगी-नशेबाज़ जैसे कानूनी दांव-पेंचों को कतई तवज्जो न दी जाये, फ़ास्ट ट्रेक कोर्ट के द्वारा जल्द से जल्द उसको सजा मिल सके, कठोर से कठोर दंड का प्रावधान हो, सजा ऐसी हो कि कोई भी व्यक्ति ‘एसिड अटैक’ करने के पहले हजार बार सोचे तब शायद इन हमलों को रोका या कम किया जा सकता है. अन्यथा की स्थिति में हालात सुधरने वाले नहीं, नियंत्रण में आने वाले नहीं.

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