17 जून 2013

इन्सान जानवर ही था या फिर हो गया है

जीव-जंतुओं से भरी समूची सभ्यता में इन्सान अपने आपको जानवरों से श्रेष्ठ मानता रहा है. कहा जाता है कि इंसानों के सोचने-समझने की शक्ति के कारण उसे जानवरों से उच्च माना जाता है, ऐसा भी दावा है कि इंसानों ने भाषाई रूप के कारण जानवरों से श्रेष्ठता हासिल कर रखी है, इसके अलावा मनुष्यों की संवेदनशीलता के चलते उसे जानवरों से श्रेष्ठ समझने वाले भी कम नहीं हैं. देखा जाये तो कहीं न कहीं ये सब विशेषताएं जानवरों में भी पाई जाती हैं. सोचने-समझने की शक्ति उनमें भी उनके स्तर तक पर्याप्त रूप से देखी गई है, वे भी कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में अपनी भाषा का आपस में इस्तेमाल करते हैं, वे सब संवेदनशीलता को समय-समय पर प्रदर्शित करते भी रहे हैं. इन स्थितियों के आंशिक अथवा पूर्णतः समान होने की दशा के बावजूद इन्सान का आविष्कारी होना उसे जानवरों से श्रेष्ठ बनाता होगा या फिर विशालकाय-खतरनाक जानवरों को भी अपनी कैद में कर लेने का दंभ इन्सान को जानवरों से श्रेष्ठ साबित करता होगा.
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इस बिंदु पर समझने वाली बात ये है कि इंसानों ने मानवीय सभ्यता के किसी क्रम में जानवरों से प्रतिस्पर्धा करके अपना विकासक्रम बनाये रखा और अंततः खुद को उन पर विजय पाकर श्रेष्ठता साबित की. इसके बाद इन्सान विकास करता रहा, जानवरों के साथ-साथ इंसानों को भी कैद करने की जुगत बिठाता रहा और फिर आपस में ही प्रतिस्पर्धा करके स्वयं को श्रेष्ठतम घोषित करता रहा. जानवर से मानव और मानव से महामानव बनने तक की यात्रा में मनुष्य को अहंकार भले ही इस बात का हो कि वो इस सृष्टि की सर्वश्रेष्ठ रचना है, सर्वोत्तम शिखर पर है मगर महामानव ने जानवरों, इंसानों, सभ्यताओं को अपनी कैद में करने की तृष्णा में अपने भीतर भी एक जानवर को कैद कर लिया है. आज वो मौका मिलते ही उसे जगाकर समाज में उथल-पुथल मचा देता है.
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हो सकता है कि सामान्य आपराधिक घटनाएँ संभवतः समाज की एक स्थिति हो क्योंकि किसी भी कालखंड को इनसे अछूता नहीं पाया गया है परन्तु मानसिक-बौद्धिक रूप से विकसित इन्सान यदि पल-प्रति-पल आपराधिक कर्म करने पर उतर आये तो इन स्थितियों पर विचार किया जाना चाहिए. आज समाज में जिस तरह के अपराधों को जन्म दिया जा रहा है उसे देखकर लगता ही नहीं कि ये इक्कीसवीं सदी के महामानव की सोच है. अपराध करने के तरीके, रिश्तों का विखंडन, पारिवारिक मर्यादाओं का नष्ट होना, संस्कृति-संस्कारों का अलोप होते जाना, मानसिक-बौद्धिक स्तर पर भी निम्न से निम्नतम बिंदु पर पहुँच जाना आदि इन्सान के जानवर में परिवर्तन का ही द्योतक है. ऐसा नहीं कि ये सभी इंसानों के साथ हो किन्तु जिस तरह से आपराधिक मानसिकता में वृद्धि हो रही है उसे देखकर पाशविक इंसानों की संख्या बढती ही दिख रही है. कई बार तो लगता है कि जानवरों से लड़ते-लड़ते अपनी सभ्यता के विकासक्रम में इन्सान ने अपने भीतर एक जानवर पाल लिया है...इसके अलावा कई बार तो ऐसा महसूस होता है कि इन्सान कभी इन्सान बना ही नहीं..वो सभ्यता के आरंभिक दौर में भी जानवर था और आज सभ्यता के विकास के उच्च शिखर पर भी जानवर ही बना बैठा है. अन्दर का पाला हुआ, कैद किया हुआ, जिंदा जानवर कभी तो शांत होने की, खामोश होने की कोशिश करता, कभी तो मानवीयता दिखाता, कभी तो इंसानियत की बात करते किन्तु जो इन्सान खुद जानवर हो उससे इंसानियत की, मानवीयता की उम्मीद कैसे की जा सकती है. श्रेष्ठता का दंभ पाले इन्सान के कुकृत्यों को देखकर सिर्फ और सिर्फ एक ही विचार आता है कि वो कल भी जानवर था, आज भी जानवर है और कल भी जानवर रहेगा....बस रहन-सहन का ढंग, काम करने का सलीका, निरीह, मासूम जानवरों को कैद करने का तरीका, इंसानों से प्रतिस्पर्धा करने की सोच, उनको नष्ट करने मानसिकता बदलेगा.....पर रहेगा इंसानी भेष में जानवर ही!!!
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