वर्तमान परिदृश्य में समाज सामाजिक असंवेदनशीलता पर लगातार चर्चा कर रहा है;
यहाँ का बुद्धिजीवी और मीडिया-प्रेमी वर्ग इस पर देशव्यापी
बहस करने में लगे हुए हैं। सामाजिक प्राणियों के लगातार निरंकुश होते जाने,
उसके असंवेदनशील होते जाने, अपने दायित्वो का निर्वहन सही से न किये जाने के सम्बन्ध
में तर्क-वितर्क किये जा रहे हैं। किसी भी घटना के होने पर कोई एक पक्ष सीधे-सीधे
किसी दूसरे पक्ष को आरोपी बनाकर कटघरे में खड़ा कर देता है तो अगले ही पल कोई दूसरा
पक्ष किसी तीसरे के विरोध में अपना मोर्चा खोल देता है। प्रत्येक वर्ग अथवा पक्ष
इतनी मुस्तैदी से, इतनी सफाई से अपनी बातों का प्रस्तुतिकरण करता है मानो उसके
सिवाय बाकी सब असत् है। अपने सिवाय बाकी अन्य को दोषी मानने की,
दूसरे पर दोषारोपरण करने की प्रवृत्ति का बढ़ना सामाजिक
परिदृश्य में कतई लाभकारी नहीं है। इससे न केवल सामाजिक संचालन में विकृतियाँ पैदा
होती है बल्कि सामाजिक ढाँचा भी गड़बड़ाता है, सामाजिक रिश्तों में एक प्रकार का अविश्वास पैदा होता है।
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इसी सामाजिक अविश्वास का परिणाम है कि आज एक-दूसरे पर कोई भी भरोसा नहीं कर
रहा है। किसी भी दुर्घटना के होने पर समाज का बुद्धिजीवी वर्ग,
सामाजिक संगठन, सामाजिक कार्यकर्ता, राजनैतिक दल, राजनीतिज्ञ, प्रशासन, शासन आदि-आदि एकदूसरे पर दोषारोपण करने में लग जाते हैं।
ऐसे हालातों का जन्म होने से सम्बन्धित घटना के मूल में जाने का,
उसके निराकरण का मुद्दा कहीं दूर हो जाता है। इस बात को इससे
आसानी से समझा जा सकता है कि विगत एक-दो वर्षों में ही इस तरह की
घटनायें-समस्यायें सामने आईं हैं जिनका समय से निराकरण होना चाहिए था,
जिनकी पुनरावृत्ति को रोकना चाहिए था पर ऐसा कदापि नहीं हो
सका। किसी भी एक बुरी घटना के भुलाये जाने के पूर्व ही,
उसके निदान के पूर्व ही उसी तरह की घटना पुनः सामने आकर
सामाजिकता को चुनौती देती है, शासन-प्रशासन को चुनौती देती है। देखा जाये तो ऐसी घटनाओं
के निराकरण के लिए एक नागरिक पूरी तरह से शासन-प्रशासन-राजनीतिज्ञों को ही
जिम्मेवार समझते हुए अपने कार्यों का संचालन करता रहता है,
अपनी जिम्मेवारियों से बचता रहता है और अकसर इसका परिणाम यह
होता है कि नागरिकों की सुसुप्तावस्था के चलते भी घटनाओं की पुनरावृत्ति होने लगती
है।
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अपने आक्रोश के चलते, अपने विरोध के कारण, अपनी परेशानी-निराशा-हताशा से एक सामान्य नागरिक सीधे-सीधे
राजनीति को, राजनीतिज्ञों को, शासन-प्रशासन को, प्रशासनिक अधिकारियों को, पुलिस को, सुरक्षा व्यवस्था को दोषी बताकर कटघरे में खड़ा कर देता है।
एक झटके में ही राजनीति सबसे विकृति भरी दिखाई जाने लगती है,
एक बयान के द्वारा ही समूचे प्रशासनिक ढाँचे पर सवाल खड़े कर
दिये जाते हैं पर क्या कभी भी एक पल को भी इस बात पर विचार किया गया है कि यदि
समाज से प्रशासनिक अमला समाप्त कर दिया जाये; पुलिस व्यवस्था को खत्म कर दिया जाये;
राजनीति को शून्य मान लिया जाये तो क्या सामाजिक संचालन जिस
तरह से हो रहा है, उस तरह से हो पायेगा? यदि किंचित उदासीनता के चलते प्रशासनिक व्यवस्था में,
पुलिस में, राजनीति में कतिपय विकृतियाँ दिखाई देने लगी हैं तो इसी के
दूसरे पहलू के रूप में समस्त नागरिकों को भी अपने गिरेबान में झाँकना होगा।
सामाजिक अपराधियों ने यदि प्रशासनिक उदासीनता का लाभ उठाकर अपराधों को अंजाम देने
की हिमाकत की है तो कहीं न कहीं उन अपराधियों की हिमाकत को बढ़ाने में नागरिक भी
जिम्मेवार रहे हैं। समाज की अव्यवस्था के लिए, अपराधियों की निरंकुशता के लिए,
अपराधियों के बेखौफ होकर घूमने के लिए यदि राजनीतिज्ञ,
प्रशासनिक अमला दोषी है तो एक आम नागरिक भी कम दोषी नहीं
है।
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एक आम नागरिक, एक बुद्धिजीवी, एक सामाजिक प्राणी राजनीति से,
राजनीतिज्ञों से, प्रशासन से, शासन से, प्रशासनिक अधिकारियों से अपने प्रति श्रेष्ठ से श्रेष्ठतम
व्यवस्था की चाह रखता है, माँग भी करता है; अपने लिए तमाम सुविधाओं की, तमाम व्यवस्थाओं की अपेक्षा करता है;
स्वयं के लिए उनके द्वारा सभी तरह के दायित्वों की पूर्ति
समयबद्ध रूप से निर्वहन करने की कल्पना भी करता है और कदाचित ऐसा न हो पाने की
स्थिति में आम नागरिक, बुद्धिजीवी आन्दोलनकारी के रूप में सड़कों पर भी दिखाई देने
लगता है। क्या एक नागरिक ने, बुद्धिजीवी ने इस समाज के प्रति,
इस राजनीति के प्रति, इस प्रशासन के प्रति, इस देश के प्रति कभी भी इसी तरह की अपेक्षा अपने आपसे की है?
क्या एक नागरिक का, बुद्धिजीवी का दायित्व केवल लेना ही लेना है;
पाना ही पाना है? क्या सामाजिक प्राणी के रूप में प्रतिष्ठित एक नागरिक का
अपने समाज के प्रति, देश के प्रति, राजनीति के प्रति, प्रशासन के प्रति कोई दायित्व नहीं है?
यदि एक नागरिक अपने दायित्वों को समझ ले;
अपनी जिम्मेवारियों का भान कर ले;
स्वयं को दोषमुक्त समझकर दूसरे पर दोषारोपण करने की
प्रवृत्ति से बचाना शुरू कर दे तो किसी भी बड़े से बड़े अपराधी की औकात नहीं कि वह
समाज में छोटे से छोटा भी अपराध करने में सफल हो जाये। पर समस्या तो वही है कि हम
अपने दोषों को छिपाकर दूसरों को दोषी बनाने की कुत्सित प्रवृत्ति को कदापि छोड़ना
ही नहीं चाहेंगे; अपराध में खुद शामिल होंगे और अपराधी दूसरे को बताना
चाहेंगे;
देश से, समाज से, राजनीति से, प्रशासन से लेना तो चाहेंगे, उसे देना कुछ नहीं चाहेंगे।
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नागरिकों ने ही तो अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर ली है। अब देखिए, अरविन्द केजरीवाल को, उसने सभी राजनेताओं और दलों को भ्रष्टाचारी बता दिया परिणाम जनता में असंतोष बढ गया। लेकिन इस आन्दोलन में वे भी बाहर कर दिए गए क्योंकि अब वे भी राजनेता जो हो गए है।
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