07 जनवरी 2013

विमर्श के नाम पर बढ़ता विभेद



            साहित्य और समाज में विगत कुछ वर्षों से स्त्री-विमर्शऔर दलित-विमर्शका चलन व्यापक रूप से देखने को मिला है। इन दोनों विमर्शों को अधिकतर एकसाथ सम्बद्ध करके देखने की प्रवृत्ति समाज में बनती जा रही है। इसके पीछे दोनों-स्त्री और दलित- को शोषित, दबा-कुचला माना जाना एक प्रमुख कारण रहा है। यह सही है कि देश में स्त्रियों की, दलितों की स्थिति दयनीय दशा में रही है और इनके उत्थान के लिए, इनके विकास के लिए समाज में लगातार प्रयास किये जाते रहे हैं और आज भी हो रहे हैं। इन्हीं तमाम सारे कामों के, प्रयासों के बीच विमर्श भी अपनी भूमिका निभाता रहता है। दोनों विमर्शों के पक्षधर लोग अपने-अपने हिसाब से स्थितियों को दर्शाकर अपनी-अपनी भूमिकाओं का निर्वाह करते रहते हैं और इसके परिणामस्वरूप साहित्य-समाज एकदूसरे पर अपना-अपना प्रभाव छोड़ते रहते हैं। साहित्य से समाज और समाज से साहित्य कुछ न कुछ अंगीकार करते हुए स्त्री-विमर्शऔर दलित-विमर्शको प्रतिस्थापित करते रहते हैं।
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            इन दोनों विमर्शों को एकसाथ इनके परिणामों के रूप में देखने की आज आवश्यकता प्रतीत होती है। समाज में इन दोनों वर्गों के आज अपने-अपने आलम्बरदार बन गये हैं, अपने-अपने मोर्चे खोल लिये गये हैं, अपने-अपने झंडे फहराने शुरू कर दिये गये हैं। इस कारण से कई बार समाज में, साहित्य में स्थिति सुधरने के स्थान पर विकृत होने की सम्भावना पनपने लगती है। आज दोनों ही विमर्शों के परिणामस्वरूप जो नया तबका उभरकर सामने आया है उसने न तो समाज का ध्यान रखा है और न ही साहित्य की सम्भावनाओं का ध्यान रखा है। ऐसे तबके का ध्यान पूरी तरह से किसी न किसी रूप में सिर्फ और सिर्फ स्वयं को प्रतिस्थापन करने में लगा हुआ है। ऐसा होने से स्त्री-विमर्शतथा दलित-विमर्शके द्वारा जो सकारात्मक परिणाम सामने आने चाहिए थे, वे कदापि नहीं आये। स्त्री-विमर्शकी आड़ लेकर स्त्रियों के एक बहुत बड़े तबके ने अपनी स्वतन्त्रा का दुरुपयोग करना शुरू किया और इसका परिणाम यह हुआ कि महिलायें पुरुषों के चंगुल से बाहर आकर महिलाओं के हाथों की कठपुतली बन गईं। इसी तरह से दलित-विमर्शके नाम पर दलित साहित्यकारों ने अपनी कलम के द्वारा, अपने साहित्य के द्वारा समाज में एक प्रकार का विभेद पैदा करना शुरू कर दिया। इससे न केवल सामाजिक वैमनष्य बढ़ा है और अगड़े-पिछड़े के बीच की खाई पटने के स्थान पर बढ़ी ही है। आज दोनों विमर्शों के सिपहसालार बजाय स्थितियों को सुधारने के स्थितियों को बिगाड़ने में लगे हुए हैं।
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            विमर्श के नाम पर आज साहित्य में, समाज में जिस तरह से शिगूफा चलाया जा रहा है, उससे न तो समाज का भला होने वाला है और न ही साहित्य का। कम से कम इन दोनों विमर्शों के वे महारथी, जो ये समझते-मानते हैं कि आपसी वैमनष्यता से, आपसी भेदभाव से यदि दोनों तबकों का भला हो जायेगा, उनकी स्थिति सुधर जायेगी तो वे कहीं न कहीं गलत कर रहे हैं। यदि सामाजिक सक्रियता बनाये रखने वाले, साहित्यिक क्षेत्र में सक्रियता दिखाने वाले वाकई इन दोनों वर्गों का सकारात्मक भला करना चाहते हैं तो उन्हें विभेद को दूर करने का प्रयास करना चाहिए। यह भी ध्यान रखना होगा कि कटुता दर्शाकर, विभेद दिखाकर समाज का, साहित्य का भला कदापि नहीं होगा बल्कि रिश्तों में कड़वाहट ही बढ़ती रहेगी।
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