29 दिसंबर 2012

मोमबत्तियाँ न जलाएं..खुद बने मशाल



          13 दिनों के कष्ट को सहने के बाद अन्ततः उस पीड़ित लड़की को सभी कष्टों से मुक्ति मिल गई। आज इस दुखद समाचार को सुनकर देशव्यापी शोक की लहर है। राजनेता से लेकर अभिनेता तक, सामाजिक से लेकर असामाजिक तक, प्रिंट मीडिया से लेकर इलैक्ट्रानिक मीडिया तक, मैदान से लेकर इंटरनेट तक, कमरे से लेकर सड़क तक सभी शोकाकुल हैं। होना भी चाहिए, आखिर पिछले 13 दिनों से उस लड़की की उपस्थिति को किसी न किसी रूप में अपने बीच स्वीकार किया गया है। एक-दो दिन तक शोक व्यक्त करने के बाद तमाम देशवासी अपनी पुरानी जीवनशैली की ओर मुड़ जायेंगे लेकिन उस लड़की की मौत ने, उसके लिए जुड़े स्व-स्फूर्त लोगो के संघर्ष ने, उसके साथ गुजरे एक-एक दर्दनाक पल ने अपने पीछे बहुत कुछ छोड़ा है जिसे देखना-परखना-समझना हम लोगों के लिए आवश्यक ही नहीं अनिवार्य हो गया है।

          16 दिसम्बर के इस दर्दनाक वाकये के बाद दिल्ली समेत देश के अधिकांश शहरों की सड़कों पर आक्रोशित युवा किसी ठोस कदम के उठाये जाने की माँग के साथ निकल आया था। इसी के परिदृश्य में एकाएक ऐसा भी लगने लगा था कि दुराचारियों का भी कोई संगठन इन युवाओं के जोश को ललकारने के लिए कार्य करने निकल पड़ा था। एक तरफ देशव्यापी आन्दोलन चल रहा था दूसरी ओर दुराचारी प्रत्येक दिन 4-5 महिलाओं के साथ बलात्कार की घटनाओं को अंजाम दे रहे थे। ऐसे विषम हालातों में, जबकि वह लड़की एक ज़ज़्बा जगाकर हमारे बीच से चली गई है, अब हमें चेतने की जरूरत है। उस एकमात्र लड़की के लिए सड़क पर निकला युवा अब तब तक घरों को वापस न लौटे जब तककि समाज की एक-एक बहिन-बेटी अपने को सुरक्षित महसूस न करने लगे। इसके लिए सभी को संगठित होने की, एकजुट होने की जरूरत है। जिन-जिन को इस एक लड़की की पीड़ा ने व्यथित किया है, जो-जो उसके लिए लड़ने को सड़कों पर उतरा है, जिस-जिस ने किसी भी रूप में उसके लिए इंसाफ की माँग की है वे सभी अपने-अपने शहरों में अपना एक संगठन बना लें। अपने-अपने सम्पर्क-सूत्र आपस में बाँट लें और अपने शहर की किसी भी महिला, लड़की के साथ होती छोटी से छोटी छेड़छाड़ की घटना पर ऐसे ही एकजुट हो जायें, इसी तरह से न्याय की माँग करें। हमारे इसी तरह से एकजुट होने से दुराचारियों के हौसले पस्त होंगे अन्यथा बलात्कार की घटनायें रोज हो रही हैं, रोज होती रहेंगी।

          दूसरा हमें इस बात पर भी ध्यान देना होगा कि क्या हमारी संवेदनायें केवल उसी समय जाग्रत होती हैं जबकि मीडिया उन्हें झंकृत करता है? एक पीड़ित लड़की के लिए न्याय माँगने के चरण में हमने रोज ही कई-कई बलात्कार घटनाओं को अपने आसपास होते देखा है। क्या कारण रहे कि सड़कों पर उतरी भीड़ उन सभी के लिए आक्रोशित नहीं दिखी? क्या कारण रहे कि सरकार भी उन तमाम पीड़ितों के इलाज अथवा न्याय के लिए इतनी तत्पर नहीं दिखी? आज भी देश में उस पीड़ित लड़की के समकक्ष और उससे अधिक पीड़ादायक स्थिति में बहुत सी महिलायें-बच्चियाँ-लड़कियाँ हैं। न तो हम और न ही हमारी सरकार उनकी ओर अपना ध्यान लगा रही है, कहीं इस कारण से तो नहीं कि मीडिया द्वारा उनकी समस्या को, उनकी पीड़ा को सामने नहीं लाया गया है? हमें अपनी जागरूकता, अपना संघर्ष, अपना आन्दोलन दिखाने के लिए यदि हर बार मीडिया की आवश्यकता पड़ती है तो उसे आन्दोलन नहीं, जागरूकता नहीं हमारी लोकप्रियता पाने की छिपी लालसा कहा जायेगा।

          पीड़ा किसी की भी हो; मृत्यु किसी की भी हो, हमें इंसान होने के नाते दर्द होना चाहिए, हमारी संवेदनाओं को जागना चाहिए। यदि हम सभी आज मोमबत्तियाँ जलाते हुए वास्तविक रूप में जागरूक हैं तो हमें उस पीड़ित लड़की की मृत्यु के बाद सोने की आवश्यकता नहीं। उसकी वेदना को हमें शिद्दत से महसूस करना होगा। सोशल मीडिया पर अपनी फोटो को काला कर लेने से, चन्द कालापन शेयर कर देने भर से न तो उसको न्याय मिलेगा और न उन पीड़ित लड़कियों को न्याय मिलेगा जो हमारे आसपास अपनी पीड़ा को लिए जी रही हैं। अब जरूरत मोमबत्तियाँ जलाकर औपचारिकता निर्वहन की नहीं वरन् स्वयं को मशाल बनाकर अपनी बहिन-बेटियों-माताओं के कष्ट, पीड़ा को जला देने की जरूरत है। काश! हम सब वाकई जागरूक हो पायें।
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