28 दिसंबर 2012

बयानवीर और विरोधवीर अपना-अपना आकलन करें



          बलात्कार के विरोध में हो रहे आन्दोलन के बीच पीड़ित लड़की को आनन-फानन इलाज के लिए सिंगापुर भेज दिया गया। उसके सिंगापुर भेजने के बाद भी न तो युवा आक्रोशित आन्दोलनकारियों का गुस्सा कम हुआ और न ही सड़कों पर उतर कर अपना विरोध दर्ज कराने का जज्बा। इस तमाम कवायद के बीच कुछ बयानों ने एक दूसरे किस्म की बहस को भी हवा दे दी। हालांकि गैंगरेप पीड़ित का मामला सामने आने के बाद अप्रत्यक्ष रूप से समाज में स्त्री-पुरुष सम्बन्धों की चर्चा की जाने लगी थी किन्तु महामहिम के सांसद पुत्र द्वारा महिलाओं को लेकर की गई हालिया टिप्पणी के बाद से माहौल कुछ और गर्म हो गया। अभी आन्दोलन से जुड़ी महिलाओं द्वारा, सामाजिक क्षेत्र से जुड़ी महिलाओं द्वारा सांसद महोदय की टिप्पणी पर अपना विरोध दर्ज करवाया ही जा रहा था कि एक कृषि वैज्ञानिक ने पीड़ित महिला की स्थिति को लेकर विवादित बयान दे मारा। इसी के साथ आज एक वरिष्ठ साहित्यकार का आलेख पढ़ने को मिला, जिसमें आन्दोलनरत कुछ लड़कियों की मानसिकता का एक छोटा सा चित्र दिखाने का उन्होंने प्रयास किया है।

          सांसद अभिजीत मुखर्जी ने महिलाओं के डेंट-पेंट कराकर आन्दोलन में शामिल होने और रात को डिस्को में जाने जैसा बयान दिया और विवादों के घेरे में आ गये। इसी तरह से कृषि वैज्ञानिक डॉ0 अनीता शुक्ला ने एक सेमीनार में विचार व्यक्त करते हुए कहा कि यदि उस लड़की ने सरेंडर कर दिया होता तो उसकी आंतें न निकाली जातीं। इसी के साथ उन्होंने आगे यह भी जोड़ा कि रात को दस बजे अपने पुरुष मित्र के साथ सड़कों पर घूमा जायेगा तो यही होगा। वरिष्ठ साहित्यकार गिरिराज किशोर के अमर उजाला में प्रकाशित आलेख उनकी आवाज क्यों नहीं सुनी जातीमें उन्होंने लिखा है कि लड़कियां तक मीडिया के लोगों से यह कहती हुई देखी गईं कि पानी की बौछार के समय मेरा फोटो खींचिए, देखो कैसे अखबार बिकते हैं। इन कुछ बयानों, विचारों, घटनाओं के आलोक में स्पष्ट है कि समाज में सभी के सोचने का और कार्य करने का अपना-अपना नजरिया है। जहां तमाम सारी महिलायें सांसद महोदय के बयान को, उनके पुरुष होने के कारण से, समूची महिलाओं का अपमान बता रही हैं, वहीं वे उस महिला कृषि वैज्ञानिक के बयान पर एकदम खामोश हैं और चूंकि साहित्यकार महोदय का लेख आज ही प्रकाशित हुआ है, अतः इस पर बवेला मचने में समय लगेगा।

          वर्तमान में समाज में जो स्थितियां बन रही हैं वे कदापि स्त्री-पुरुष के आपसी समन्वय को लेकर नहीं बन रही हैं। किसी भी घटना को, किसी भी बयान को सिर्फ और सिर्फ स्त्री-पुरुष के चश्मे से देखना शुरू कर दिया जाता है। इस बात को अपने पिछले कई आलेखों  में लिखा जा चुका है कि बजाय आपस में दोषारोपण करने के स्त्री-पुरुष समन्वय का रास्ता निकालना होगा। ऐसे एक-दो नहीं वरन् सैकड़ों उदाहरण हैं जबकि स्त्री-पुरुष, दोनों ने, एकदूसरे के विरुद्ध बयानवाजी की है; स्त्रियों को स्त्रियों के विरुद्ध और पुरुषों को पुरुषों के विरुद्ध खूब अनर्गल प्रलाप करते देखा गया है। जबकि यह भी सत्य है कि इस तरह की बयानवाजी से क्षणिक प्रसिद्धि मिलने के और कुछ भी हाथ नहीं लगता है। इसके अतिरिक्त आज जो लोग स्वयं को वरिष्ठ बुद्धिजीवी, वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता, अनुभवी आन्दोलनकारी, वास्तविक हितैषी समझते हों वे एकबार अपने युवा-जीवन के, छात्र-जीवन के आन्दोलनों को याद करें; उसमें शामिल लोगों की मानसिकता को याद करें तो सम्भव है कि आन्दोलनकारियों में से अधिकांश की वास्तविकता को वे आसानी से पहचान लेंगे। हमने स्वयं भी कई आन्दोलनों में सक्रिय हिस्सेदारी की है और उसमें शामिल लोगों में से अधिकांश की मानसिकता को करीब से देखा-परखा है, इसे यहां स्पष्ट करना एक और विवाद को खड़ा करना ही होगा।

          यह निर्विवाद सत्य है कि समाज में स्त्री-पुरुष की आपसी स्थिति जहां पहुंच गई है अथवा पहुंचा दी गई है वहां कोई भी छोटी से छोटी बात भी एकदूसरे के विरोध में ही दिखेगी। ऐसे में यदि आपसी सहमति से कोई हल नहीं निकलता दिखता है तो प्रयास यह करना चाहिए कि बेवजह किसी भी बात को तूल देकर उसके कारण से मूल मुद्दे से भटकना नहीं चाहिए। पुरुष सांसद की महिलाओं पर टिप्पणी से, महिला कृषि वैज्ञानिक की पीड़ित महिला पर की गई टिप्पणी से, वरिष्ठ साहित्यकार द्वारा आन्दोलनरत कुछ लड़कियों की मानसिकता स्पष्ट करने से कोई सकारात्मकता सामने आती नहीं दिखती है। हां, बेवजह के बयानों, विवादों से मूल मुद्दा कहीं हाशिये पर चला जाता है। यदि ऐसे बयानों, विचारों, मानसिकता के प्रकटन से; इनके विरोध करने से, बेवजह तूल देने से यदि तमाम दुराचारियों को कड़ी से कड़ी सजा मिल जायेगी, तमाम महिलायें सुरक्षा का अनुभव करने लगेंगी, पीड़ित लड़की सकुश अपने घर लौट जायेगी तो आइये हम सभी ऐसी बयानवाजी में और उसके विरोध के शिगूफे बनाने में जुट जायें। देखना और समझना होगा कि कहीं ऐसे बयानों, विचारों के द्वारा क्षणिक प्रसिद्धि पाने वालों की मानसिकता की तरह ऐसे बयानों, विचारों का विरोध करने वालों की भी वही मानसिकता तो नहीं है।
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