दिल्ली बस केस के बाद बलात्कार से सम्बन्धित कानून,
महिलाओं की रक्षा करने सम्बन्धी कानूनों को और कड़ा करने पर
व्यापक जनान्दोलन सा स्वरूप दिखाई दिया। इसी के पार्श्व में महिलाओं-पुरुषों के
आपसी सम्बन्धों पर भी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष बहस भी छिड़ती दिखी। बलात्कार से सम्बन्धित कानून कितनी कड़ी सजा का
प्रावधान करता है; महिलाओं की सुरक्षा हेतु और क्या-क्या साधन-संसाधन प्रयोग
में लाये जाते हैं, यह अभी भविष्य के गर्भ में है लेकिन अब समाज में
स्त्री-पुरुष के सम्बन्धों पर सार्थक और सकारात्मक बहस की,
निदानात्मक बहस की आवश्यकता है,
नितान्त आवश्यकता है।
यह एक सामाजिक सत्य है कि स्त्री और पुरुष के आपसी सामन्जस्य से ही सामाजिक
अवधारणा का सूत्रपात हुआ। समय, काल, परिस्थितियों के द्वारा पूर्व में क्या-क्या और क्यों होता
रहा,
इस पर बहस करने से बेहतर है कि वर्तमान को सामने रखकर आपसी
सम्बन्धों पर दोनों पक्षों द्वारा विचार किया जाये। इस बात से शायद ही कोई इंकार
करेगा कि वर्तमान समय में महिलायें स्वयं को घनघोर रूप से असुरक्षित महसूस कर रही
हैं। देखा जाये तो वे असुरक्षित महसूस ही नहीं कर रही हैं वरन् असुरक्षित हैं ही,
ऐसे में इस बात पर विचार बहुत ही आवश्यक है कि आखिर 21वीं सदी में पहुँचने के बाद भी,
समाज के प्रत्येक क्षेत्र में अपनी सशक्त उपस्थिति को दर्ज
करवाने के बाद भी महिलाओं को समाज में असुरक्षा का भाव किस कारण से जागता है?
समाज में किसी भी भूमिका का सफलतापूर्वक निर्वहन करने वाली
महिला चन्द पुरुषों के बीच स्वयं को असुरक्षित महसूस क्यों करने लगती है?
समाज के बीचोंबीच किसी महिला की उपस्थिति पुरुषों द्वारा
उसके वस्त्रों से गुजार कर उसकी देह पर आकर क्यों टिका दी जाती है?
और भी तमाम सारे बिन्दु हैं जिन पर सार्थक और सकारात्मक
चर्चा होने के स्थान पर, आपसी सहमति बनने के स्थान पर दोनों एक दूसरे पर दोषारोपण
करने लगते हैं।
यहाँ पूर्वाग्रह से ग्रसित बिना हुए इस बात को स्त्री-पुरुष दोनों को इस बात का स्वीकार करना होगा कि समाज में सभी पुरुष महिलाओं के विरोधी अथवा उन पर अत्याचार करने वाले नहीं हैं, इसी तरह समाज की सभी महिलायें शोषित नहीं हैं। अनेक उदाहरण ऐसे हैं जिनमें महिलायें ही महिलाओं का शोषण कर रही हैं और पुरुष भी अनेक रूप से शोषितों के रूप में दिखाई देता है। मारपीट की घटना, शारीरिक अत्याचार, दरिन्दगी आदि का शिकार पुरुष भी होते हैं और महिलाओं के विरुद्ध इस तरह के अत्याचार करने वालों में महिलायें भी शामिल होती हैं। सवाल यह उठता है कि आखिर इस समस्या का निदान कौन और कैसे निकालेगा? ऐसे में भले ही प्रयास व्यक्तिगत हों अथवा सामूहिक, प्रयास इस तरह के हों जिनसे एक दिशा मिलती दिखाई दे। इससे इतर वर्तमान में हो यह रहा है कि स्त्री पक्ष के लोग समाज की समूची स्त्रियों को अबला, निरीह, मासूम, शोषित के रूप में ही प्रस्तुत करके पूरे प्रकरण के लिए सिर्फ और सिर्फ पुरुष को दोषी ठहराते दिखते हैं। सदियों-सदियों पुरानी उस मनुवादी व्यवस्था को वर्तमान में उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया जाता है जिसकी एक पंक्ति का आज अनुसरण भी नहीं किया जाता है। आपसी विवाद, वैमनष्यता को सुलझाने के स्थान पर पुरुष को अपराधी, शोषक, अत्याचारी, अहंकारी रूप में प्रस्तुत किया जाता है।
यह तो तय है कि समूचे समाज से स्त्री-पुरुष के भेदभाव को अब मिटाया जाना नामुमकिन सा दिखता है। ऐसे में हमें अपने परिवार के बीच से ही इस सुधार का काम करना होगा। हमें अपने परिवार के पुरुषों के मध्य स्त्री की वास्तविक छवि को रखना होगा, स्त्रियों को भी पुरुषों की सहज छवि से परिचित करवाना होगा। यदि पारिवारिक स्तर पर स्त्री-पुरुष में आपसी साम्य बनता है तो उसके परिणाम सुखद देखने को मिलेंगे। भले ही स्त्री द्वारा पुरुष को कितना भी अत्याचारी, दम्भी, अपराधी, क्रूर, निर्दयी रूप में प्रस्तुत किया जाये; पुरुषों द्वारा भले ही स्त्रियों को किसी भी रूप में परिभाषित किया जाये किन्तु इस बात से किसी को भी इंकार नहीं होगा कि दोनों को एक दूसरे को अंगीकार करना ही पड़ रहा है, भविष्य में भी करना पड़ेगा। तमाम सारे अन्तर्विरोधों के बाद, तमाम सारी विषमताओं के बाद जब स्त्री-पुरुष दोनों को एकाकार होना ही है तो आपसी मनमुटाव के द्वारा क्यों? सामाजिक विरोधों के द्वारा क्यों? निर्मूल आशंकाओं के बीच क्यों?
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