विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र में रहने का दम भरने वाले हम भारतीय आजकल अपनी
लोकतान्त्रिक सरकार की तानाशाही, उसकी निरंकुशता, उसकी निष्क्रियता सहने को मजबूर हैं। विगत दो-तीन वर्षों
में देश में हुई तमाम उठापटक के बाद, आर्थिक रूप से आये अनेक बदलावों के बाद केन्द्र सरकार ने
जैसे मनमानी करने की ठान ली है। उसके द्वारा इस तरह के कदम उठाये जा रहे हैं जो
किसी भी रूप में जनहितकारी नहीं दिखते हैं। मंहगाई का मुद्दा रहा हो,
रोजमर्रा के उपयोग में आने वाली सामग्री की कीमतों में
अंधाधुंध बढोत्तरी करने की बात रही हो, संसद के भीतर बैठकर बिना जनता की आवाज सुने,
बिना उसकी भावनाओं की परवाह करके तमाम सारे बिलों को पारित
करवा लेना और तमाम सारे बिलों को पारित न होने देने की राजनीति करना,
शान्तिपूर्वक चल रहे जनान्दोलनों को सिरे से नकार देना,
आन्दोलनकारियों की परवाह न करना,
उन पर बलप्रयोग करवा देना आदि-आदि ऐसी घटनायें हैं जो आसानी
से इस बात को साबित करती हैं कि सरकार अब जनता की आवाज को कतई महत्व नहीं दे रही
है।
इसे निरंकुशता कहा जाये अथवा सरकारी निष्क्रियता कि जहां मंत्रियों की घोटालों
में लिप्तता उनको सजा दिलवाने के स्थान पर उनकी पदोन्नति करवाती है। इसके उलट जनता
को बिना किसी अपराध के, सिर्फ अपनी बात को, अपने अधिकारों की मांग करने के प्रत्युत्तर में जेल में डाल
दिया जाता हो, लाठीचार्ज का सामना करना पड़ता हो। केन्द्र सरकार का रवैया पूरी तरह से उस ढीठ
बालक की तरह से हो गया है जो अपने अभिभावकों की डांट-मार से डरता नहीं वरन् पूरी
बेशर्मी से वही उद्दंडता करता रहता है, जिसे करने से उसे लगातार रोका-टोका जाता है। कम से कम सरकार
को इस बात का ध्यान देना होगा कि वह किसी एक व्यक्ति के प्रति,
एक राज्य के प्रति, एक परिवार के प्रति जिम्मेवार नहीं है,
उसके सामने पूरा देश है, समूचे देशवासी हैं जिनकी भावनाओं की कद्र करना,
जिनके अधिकारों की रक्षा करना उसका दायित्व है।
केन्द्र सरकार का यह रवैया स्पष्ट रूप से इस बात के प्रति आगाह करता है कि उसे अब जनता की बिलकुल परवाह नहीं रह गई है। सरकारी तन्त्र में शामिल मंत्रियों के स्वर एकजुट होकर सिर्फ और सिर्फ एक परिवार के चन्द व्यक्तियों की चाटुकारिता करते रहते हैं और अपनी-अपनी कुर्सी को बचाने में सफल सिद्ध होते हैं। पता नहीं उन्हें इस बात का भान भी है अथवा नहीं कि केन्द्र सरकार के इस तरह से निरंकुश और निष्क्रिय रवैये से अपराधियों के हौसले बुलन्द हो रहे हैं। देश के दूसरे भागों की बात करना इस कीमत पर बेमानी है जब देश की राजधानी ही सुरक्षित नहीं है। सड़कों पर खुलेआम होती हिंसा, अराजकता, लूटपाट, हत्या, महिला हिंसा, अपहरण आदि-आदि से जनता में भय के साथ-साथ आक्रोश भी है। यद्यपि इस देश की जनता को ‘संतोषम् परम् सुखम्’ की घुट्टी बचपन से ही पिलाई जाने लगती है और इसके चलते जनाक्रोश के हिंसक होने की सम्भावना यहां लगभग नगण्य ही रहती है। इसके बाद भी यह आशंका सदैव बनी रहती है कि कहीं यह जनाक्रोश आतंकी विचारधारा के लोगों को देश में उत्पात मचाने के लिए उत्प्रेरक का काम न करने लगे। सरकार को देशहित में, जनहित में इस जनाक्रोश को समझे और अपनी निरंकुशता को, निष्क्रियता को, मनमानी को छोड़कर कुछ सार्थक, सकारात्मक कदम उठाये।
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