28 जुलाई 2012

मूर्ति स्थापना से समस्या, मूर्तियों से ही समाधान

सदन में सभी निर्वाचितों ने आपस में सुर मिलाया और प्रस्ताव पारित किया कि अब प्रत्येक निर्वाचित व्यक्ति की मूर्ति को सरकारी खर्चे पर लगवाया जायेगा। सदन ने मुक्तस्वर से इसकी सराहना की और मुक्तहस्त से इसका स्वागत किया। इस प्रस्ताव को तो सदन में बहुत पहले ही पारित हो जाना चाहिए था आखिर प्रतिष्ठा का, सम्मान का, गरिमा का, स्वाभिमान का सवाल जो है। कितनी अवसाद भरी स्थिति होती होगी किसी भी निर्वाचित व्यक्ति के लिए कि जो दिवंगत हो चुके हैं उनकी प्रतिमायें विभिन्न स्वरूपों में दिख रही हैं, कहीं संगमरमर की हैं तो कहीं ग्रेनाइट पत्थर की, किसी की प्रतिमा को छाया मिली है तो किसी की प्रतिमा खुले आकाश में स्थापित है, किसी की आदमकद है तो किसी की प्रतिमा बैठी हुई बनी है, कोई किताब लिये खड़ा दिख रहा है तो कोई लाठी लिए दिख रहा है। इतनी सारी मुद्राओं के बीच जीवित टहलते लोगों की, घोटालों में लिप्त लोगों की, भ्रष्टाचार करते लोगों की, जोड़-तोड़ करते लोगों की, समाज में ईर्ष्या-वैमनष्य फैलाते लोगों की, स्वार्थसिद्धि करते लोगों की एक भी प्रतिमा नहीं दिखती।

ऐसी विडम्बना भरी स्थिति से निजात दिलाने के लिए किसी जमाने में एक देवी का अवतार हुआ था। एक वर्ग विशेष का उद्धार करने के लिए अवतरित हुई देवी ने वर्ग विशेष का नहीं अपना विकास किया, रोटी-कपड़ा-मकान को उपलब्ध करवाया पर वर्ग विशेष के लिए नहीं अपने लिए, सुरक्षा के भरपूर इंतजाम किये किन्तु वर्ग विशेष के लिए नहीं अपने लिए। अवतारों के सम्बन्ध में जो किंवदन्ति समाज में हमेशा से रही है कि वे एक निश्चित समय के लिए समाज का भला करने के लिए अवतरित होते हैं और अपनी छाप छोड़ कर चले जाते हैं। वर्ग विशेष की देवी ने भी अपने नियत समय में समाज विशेष का भला करने की बीड़ा उठाया और अपनी छाप छोड़ने के लिए अपनी पहचान को दिलों में नहीं पत्थरों के रूप में स्थापित किया।

देवी ने एक रास्ता दिखाया और सदन ने उस रास्ते को पक्का करवा दिया। अब सभी निर्वाचित व्यक्तियों ने समाजोपयोगी कार्य रोक कर, विकासपरक कार्यों को रोक कर अपनी-अपनी मूर्तियों को स्थापित करवाने का कार्य शुरू कर दिया। प्रदेश भर में तमाम सारे बेकार पड़े मूर्तिकारों को एकाएक काम मिल गया। बड़े-बड़े बिल्डर्स भवन निर्माण का काम रोककर मूर्तियों की स्थापना के ठेके लेने की जुगाड़ में लग गये। जमीनों के दाम औने-पौने रूप में आसमान छूने लगे। लोग अपने विशालकाय भवनों को अपने-अपने चहेते निर्वाचित व्यक्ति को देकर उसकी कृपा पाने की आस लगाने लगे। समूचे प्रदेश में जबरदस्त विकासपरक क्रान्ति दिखाई देने लगी। जहां निगाह डालो वहां निर्वाचित ही खड़े दिखाई देने लगे, इको-पार्क में पेड़ों की छांव के स्थान पर बच्चे मूर्तियों के नीचे खेलने लगे, हरियाली का नामोनिशान मिट गया और सभी जगह पत्थर के महल दिखाई देने लगे।

यह सब हुआ तो निर्वाचितों की हीनभावना का अंत तो हुआ ही बहुत से लोगों को इसका लाभ भी मिला। मूर्तिकारों को काम मिला, मूर्तियां लगाने वाले मजदूरों को काम मिला, मूर्तियां लाने ले जाने के लिए गाड़ियों को काम मिला, मूर्तियों को चढ़ाने-उतारने के लिए पल्लेदारों को काम मिला, मूर्तियों की सफाई के लिए कर्मचारियों की फौज को काम मिला। इन सबके बीच समस्या आई मूर्तियों की सुरक्षा की.........इन महानुभावों को डर लगा कि कहीं कोई विपक्षी प्रतिनिधि उनकी मूर्तियों को खंडित न करवा दे। जनता से उन्हें किसी भी तरह का डर नहीं था क्योंकि इन प्रतिनिधियों ने जनमानस को यह समझा रखा था कि वे उनके भगवान-देवी हैं, उनकी मूर्तियां सम्बन्धित वर्ग विशेष को सम्मान दिलायेंगी, स्वाभिमान जगायेंगी, गरिमा बढ़ायेंगी। जनता की ओर से निष्फिक्र होकर प्रतिनिधियों ने फिर एक प्रस्ताव सदन में पारित करवाया और प्रत्येक मूर्ति के चारों को भारी संख्या में सुरक्षाबलों की तैनाती करवा दी।

अब शहरों में मूर्तियां खड़ी दिखतीं, उन्हें घेरे खड़े वर्दीधारी दिखते और कभी-कभी मूर्तियों को नहलाने का, सफाई का काम करते दिखते कुछ कर्मचारी दिख जाते। इन सबसे समाज के सभी वर्गों में व्यापक रूप से स्वाभिमान की लहर दौड़ गई। सभी को जबरदस्त रूप से गरिमा का एहसास होने लगा, सभी को अपने आपमें गर्व की अनुभूति होने लगी। इन सबके बीच एक वर्ग ऐसा भी था जिसके दिल में भयंकर तरीके से उथल-पुथल मची हुई थी, उस वर्ग विशेष के पेट में जबरदस्त मरोड़ उठने में लगी थी। उस वर्ग की समस्या बढ़ गई थी, मूर्तियों की स्थापना के लिए जगह बनवाने के चक्कर में पेड़ कट गये थे, खम्बे हट गये थे। कई दिनों तक अपनी भीषण समस्या को अपने में समेटे इस वर्ग ने अन्ततः क्रान्तिकारी और आत्मघाती फैसला ले ही लिया।

इस वर्ग ने एक दिन सुरक्षा व्यवस्था को, सुरक्षा बेड़े को धता बताकर अपनी समस्या का समाधान कर ही लिया। बिना जान की परवाह किये इस वर्ग के सदस्यों को जहां मौका मिला, जिस मूर्ति पर मौका मिला अपनी एक टांग उठाकर स्वयं को हल्का करना शुरू कर दिया। सुरक्षा बलों की कुछ समझ में नहीं आया कि ये होने क्या लगा। निर्वाचित प्रतिनिधि किसी एक पर आरोप नहीं लगा पा रहे थे, आखिर यह कृत्य उस वर्ग विशेष ने सभी मूर्तियों के साथ समान रूप से किया था। इसके बाद सभी निर्वाचित प्रतिनिधियों ने सदन में फिर एक प्रस्ताव पारित करने का मन बनाया कि ऐसे वर्ग को राजद्रोह के आरोप में पकड़ कर सदा-सदा को मिटा दिया जाये ताकि आने वाले समय में ये किसी भी जीवित प्रतिनिधि की मूर्ति पर अपनी एक टांग उठाकर अपनी समस्या का निस्तारण न कर सकें।








1 टिप्पणी:

  1. भाई , आपके ब्लॉग पर देरी से आने के लिए पहले तो क्षमा चाहता हूँ. कुछ ऐसी व्यस्तताएं रहीं के मुझे ब्लॉग जगत से दूर रहना पड़ा...अब इस हर्जाने की भरपाई आपकी सभी पुरानी रचनाएँ पढ़ कर करूँगा....कमेन्ट भले सब पर न कर पाऊं लेकिन पढूंगा जरूर

    बहुत रोचक पोस्ट है आपकी...करारा व्यंग है...

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