दीपक मशाल की पोस्ट को पढ़ा, विचारणीय और बहुत ही गम्भीर विषय परलिख गया है। अभी तक जिन्होंने दीपक को कविताओं, गजलों और कुछ लघुकथाओं पर कलम चलाते देखा है उन्हें आश्चर्य हो रहा होगा पर हमें तो आश्चर्य यह हो रहा था कि दीपक जैसा गम्भीर चिन्तक अभी तक इस तरह कि विषयों पर खामोश कैसे रह सका?
इधर अपनी ब्लॉग यात्रा के दौरान ऐसे बहुत से ब्लॉगरों को देखा जो किसी भी गम्भीर मुद्दे पर लिखने का तो छोड़िये, दूसरे के लिखे पर टिप्पणी करने से भी बचते हैं। उनके द्वारा बस हा-हा, हू-हू लिखवा लीजिये, टीप के लिख देंगे पर किसी समस्या पर, गम्भीर विषय पर उन्हें कभी लिखते नहीं देखा गया है।
इस तरह की पोस्ट दीपक के अन्तर्मन की पीढ़ा को दर्शाती है। हम आज ऐसे समाज में रह रहे हैं जहां से आपसी सम्बन्ध, रिश्तों की गर्माहट, विश्वास समाप्त ही हो चुके हैं। अब आपसी सम्बन्धों में स्वार्थ-लोलुपता का समावेश हो गया है; रिश्तों की गर्माहट अब बिस्तर पर आकर ठण्डी होती है; विश्वास का नित ही खून होते देखा जा सकता है, ऐसे में हम असली-नकली पर बात करके स्वयं को दकियानूसी ही साबित सा कर रहे हैं।
नकली का हाल यह है कि रेलवे स्टेशनों पर सफेद रंग को घोल कर उसकी चाय बनाई जा रही है, खाद्य-सामग्री में शायद ही कोई ऐसी सामग्री बाकी रही हो जिसमें मिलावट न हो। इस मिलावट और स्वार्थ की पराकाष्ठा उस समय देखने को मिली थी जब मिलावटी खून सैकड़ों थैलियों में पकड़ा गया था। आदमी इस नीचता तक भी गिर सकता है कभी सोचा भी नहीं गया होगा।
विचार करिये कि एक व्यक्ति जिसका कोई अपना बीमार है और उसे खून की आवश्यकता है, ऐसे में वह किसी भी कीमत पर रक्त का इन्तजाम करने को तैयार रहता है। ऐसी स्थिति के बाद भी धनलोलुप लोगों ने रक्त में ही मिलावट करके बेचना शुरू कर दिया। इस तरह की मिलावट और खाद्य सामग्री की मिलावट का अन्तर यह है कि यहां तो आपको मालूम है कि मिलावटी रक्त चढ़ाते ही इंसान की मौत होनी है। इसके बाद भी मिलावट का होना हमारे संज्ञाशून्य, भावशून्य, संवेदनशून्य होने को सिद्ध करता है।
अब विचार आवश्यक है और सिर्फ विचार ही नहीं किसी ठोस कदम के उठाये जाने की भी जरूरत है। यदि ऐसा नहीं होता है तो हम सिर्फ और सिर्फ लोगों को मौत के मुंह में जाते देखते रहेंगे तथा इस तरह से विचार व्यक्त करके अपने कर्तव्यों की इतिश्री करते रहेंगे।
चित्र गूगल छवियों से साभार
स्थितियाँ चिन्ताजनक हो चली हैं...मानसिकता का कुलुषितकरण..दुर्भाग्यपूर्ण हैं..दीपक का आलेख सामयिक/विचारणीय आलेख है.
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