कई बार ऐसा होता है और सभी के साथ ही ऐसा होता होगा कि जब मन में मस्ती करने का ख्याल आता होगा। अपने कार्य, अपने पद, अपनी प्रतिष्ठा, सामाजिक प्रस्थिति के कारण कई बार हम अपनी जीवन-शैली को कृत्रिमता का आवरण ओढ़ा देते हैं।
खुल कर, मुँह फाड़कर हँसना चाहते हैं, पर नहीं हँस सकते, लोग क्या कहेंगे, यही सोच कर होंठों को इधर-उधर करके ही हँसने की औपचारिकता कर लेते हैं।
बच्चों के साथ खूब उठापटक करना चाहते हैं; गली में, पार्क में, छोटे-छोटे मैदानों में धमाचैकड़ी करते बच्चों के साथ हम भी अपना बचपन याद करना चाहते हैं पर नहीं कर पाते। लोग क्या कहेंगे की सोच हम पर हावी हो जाती है।
यार-दोस्तों के साथ बैठ कर वही पुराने तरीके से हँसी-ठठ्ठा कर लेते हैं पर यह भी देखते हैं कि कहीं कोई और दूसरा न देख लें, नहीं तो सारी इज्जत का कचरा हो जायेगा।
इस पर गुलाम अली द्वारा गायी हुई ग़ज़ल का एक शेर याद आ रहा है-
अपने जीने में हम क्यों इतनी औपचारिकता, कृत्रिमता लाते जा रहे हैं, बता नहीं सकते? बात-बात पर संस्कृति-सभ्यता का ज्ञान बघारा जाता है। कदम-कदम पर श्लीलता-अश्लीलता की दुहाई दी जाती है। हर काम के पीछे इज्जत खराब न हो जाये का भूत दौड़ाया जाता है। आपस में एक चुटकुला भी सुनाया जाता है तो यह सोचकर कि कहीं इससे हमारी इज्जत मिट्टी में न मिल जाये।
अरे! कभी तो किसी काम को बस आनन्द के लिए किया जाया करे। क्या आवश्यक है कि हर काम में हम आदर्श स्थापना की कोशिश करें? क्यों अपेक्षा करें कि हमारे काम हमें आदर्शवादी-सिद्धान्तवादी घोषित करते रहें?
मौका मिले तो हम भी मुँह फाड़कर हँसें। अवसर आये तो हम भी अपने आपको दूसरों को हँसाने-गुदगुदाने से चूकें नहीं। मस्ती के दो पल भी हमें काम के बोझ से मुक्ति दिलाते हैं। दिमाग में चल रहे टेंशन को दूर करने में मदद करते हैं।
यही सोचकर कि ब्लाग पर बौद्धिकता के बीच कुछ मस्ती के लिए भी समय निकालकर आप सबको अपने साथ शामिल किया जाये। (हमारे दोस्तों और सहयोगियों में तथा अन्य परिचितों में हमारी छवि हँसोड़ की बनी है और हमें कभी इस बात की चिन्ता नहीं रही कि हमारे हँसने-हँसाने के कारण हमारी स्थिति पर क्या प्रभाव पड़ेगा? आज भी इतना ठठ्ठा मार के हँसते हैं कि बस........................) हमने औरों की देखादेखी एक ब्लाग बना दिया ‘‘थोड़ी सी मस्ती हो जाये!!!!’’ अपने ब्लाग पर ऐसा करते तो हमें सुधरने की सलाह भी मिलती इसलिए यह एक प्रयास, वो भी अपनी खुशी के लिए, आपके आनन्द के लिए, हम सभी की मस्ती के लिए।
एक चुटकुला और लम्बी सी बकवास बन्द-----
यहाँ पहले की तरह ही चर्चा होगी, मस्ती के लिए यहाँ भी आइयेगा।
खुल कर, मुँह फाड़कर हँसना चाहते हैं, पर नहीं हँस सकते, लोग क्या कहेंगे, यही सोच कर होंठों को इधर-उधर करके ही हँसने की औपचारिकता कर लेते हैं।
बच्चों के साथ खूब उठापटक करना चाहते हैं; गली में, पार्क में, छोटे-छोटे मैदानों में धमाचैकड़ी करते बच्चों के साथ हम भी अपना बचपन याद करना चाहते हैं पर नहीं कर पाते। लोग क्या कहेंगे की सोच हम पर हावी हो जाती है।
यार-दोस्तों के साथ बैठ कर वही पुराने तरीके से हँसी-ठठ्ठा कर लेते हैं पर यह भी देखते हैं कि कहीं कोई और दूसरा न देख लें, नहीं तो सारी इज्जत का कचरा हो जायेगा।
इस पर गुलाम अली द्वारा गायी हुई ग़ज़ल का एक शेर याद आ रहा है-
अंदाज अपने देखते हैं आइने में वो, और ये भी देखते हैं कि कोई देखता न हो। |
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अपने जीने में हम क्यों इतनी औपचारिकता, कृत्रिमता लाते जा रहे हैं, बता नहीं सकते? बात-बात पर संस्कृति-सभ्यता का ज्ञान बघारा जाता है। कदम-कदम पर श्लीलता-अश्लीलता की दुहाई दी जाती है। हर काम के पीछे इज्जत खराब न हो जाये का भूत दौड़ाया जाता है। आपस में एक चुटकुला भी सुनाया जाता है तो यह सोचकर कि कहीं इससे हमारी इज्जत मिट्टी में न मिल जाये।
अरे! कभी तो किसी काम को बस आनन्द के लिए किया जाया करे। क्या आवश्यक है कि हर काम में हम आदर्श स्थापना की कोशिश करें? क्यों अपेक्षा करें कि हमारे काम हमें आदर्शवादी-सिद्धान्तवादी घोषित करते रहें?
मौका मिले तो हम भी मुँह फाड़कर हँसें। अवसर आये तो हम भी अपने आपको दूसरों को हँसाने-गुदगुदाने से चूकें नहीं। मस्ती के दो पल भी हमें काम के बोझ से मुक्ति दिलाते हैं। दिमाग में चल रहे टेंशन को दूर करने में मदद करते हैं।
यही सोचकर कि ब्लाग पर बौद्धिकता के बीच कुछ मस्ती के लिए भी समय निकालकर आप सबको अपने साथ शामिल किया जाये। (हमारे दोस्तों और सहयोगियों में तथा अन्य परिचितों में हमारी छवि हँसोड़ की बनी है और हमें कभी इस बात की चिन्ता नहीं रही कि हमारे हँसने-हँसाने के कारण हमारी स्थिति पर क्या प्रभाव पड़ेगा? आज भी इतना ठठ्ठा मार के हँसते हैं कि बस........................) हमने औरों की देखादेखी एक ब्लाग बना दिया ‘‘थोड़ी सी मस्ती हो जाये!!!!’’ अपने ब्लाग पर ऐसा करते तो हमें सुधरने की सलाह भी मिलती इसलिए यह एक प्रयास, वो भी अपनी खुशी के लिए, आपके आनन्द के लिए, हम सभी की मस्ती के लिए।
एक निवेदन है कि इस ब्लाग पर बस मस्ती ही होगी, किसी तरह का बौद्धिक नहीं। इसलिए कृपया वे लोग तो इस ब्लाग पर कतई न आवें जिन्हें बात-बात पर बौद्धिकता प्रकट करने की तथा ग्रहण करने की बीमारी है। बौद्धिक, अतार्किक, श्लील-अश्लील, सांस्कृतिकता-असांस्कृतिकता, मजाक, शोभायमान-अशोभनीय जैसी विकट शब्दावली को जानने वाले भी इसपर आने से बचें। यक केवल मस्ती के लिए है, हो सकता है कि किसी न किसी दिन कोई मस्ती भरा प्रसंग आपको अश्लीलतापूर्ण लगे और बस हो जाये ब्लाग का पोस्टमार्टम और हमारा भी। यहाँ आने के पहले दिमाग को अलग रखना होगा। सोचना और विचार करने की आजादी यहाँ नहीं होगी। इसके जानकारों को यहाँ आने से खतरा हो सकता है। |
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एक चुटकुला और लम्बी सी बकवास बन्द-----
एक दोस्त दूसरे से-क्या तुम अपने दाँतों से अपना कान दबा सकते हो? दूसरे ने कहा-नहीं। पहले ने कहा कि वह ऐसा कर सकता है। दूसरे ने पूछा-कैसे? पहले वाले ने अपनी बत्तीसी (नकली दाँत) निकाली और कान दबा लिया। |
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यहाँ पहले की तरह ही चर्चा होगी, मस्ती के लिए यहाँ भी आइयेगा।
हा हा!! क्या कान दबाये..जारी रहिये..शुभकामनाएँ.
जवाब देंहटाएंवाह वाह क्या बात है! बहुत बढ़िया लगा! मज़ेदार!
जवाब देंहटाएंहम भी आपकी मस्ती की गंगा में
जवाब देंहटाएंआचमन करने आ गये!
अपने कार्य, अपने पद, अपनी प्रतिष्ठा, सामाजिक प्रस्थिति के कारण कई बार हम अपनी जीवन-शैली को कृत्रिमता का आवरण ओढ़ा देते हैं....
जवाब देंहटाएंबहुत सही कह रहे हैं ...हँसना..कभी कभी खुद पर भी और हँसाना सुखी संतोषपूर्ण जीवन के लिए बहुत आवश्यक है ...!!
अच्छा disclaimer रखा है आपने . फोटो में तो मंद मंद ही मुस्का रहे हैं :)
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