04 नवंबर 2009

300 वीं पोस्ट पर स्वरचित 100 वीं कविता - खामोशी

मालूम है कि लालच बुरी बला है किंतु 300 पोस्ट आज ही पूरी करने का लालच रोक नहीं सके और आपको फिरसे परेशान करने चले आए।

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300 वीं पोस्ट पर स्वरचित 100 वीं कविता। शायद आपको पसंद आए............ इस कविता को दिसम्बर 1997 में लिखा था।

खामोशी


एक निस्तब्धता
हम दोनों के बीच
सदियों से छाई है।
हम दोनों साथ चलते रहे
जाने कब से मगर
इस मौन को न तोड़ सके।
वह बात
जो मैं सुनना चाहता था
तुम्हारी आवाज़ में,
उसे नज़रों की भाषा में
पढ़ सके।
हमारी बात दिल की
दिल में ही रह गई,
एक खामोश मौन की
गहराइयों में बह गई।
तुम्हारे लबों पर,
तुम्हारे विचारों की लय पर
पहरा लगा था समाज का,
परदा पड़ा था
शर्म और लाज़ का,
पर मैं...मैं क्यों मौन रहा?
क्यों खामोशी का दामन थामे
यूँ चलता रहा?
हवा के हर झोंके ने,
बादलों की हर अँगड़ाई ने
छूकर पास से,
सिरहन मचाकर तन में
मौन को तोड़ना चाहा,
पर....
सफर यूँ ही खामोश कटता रहा।
आज फिर तुम्हारी नज़रों ने
संग ले इस सुहाने मौसम का
कुछ पूछना चाहा,
खामोश दर्प को तोड़ना चाहा।
नज़रों ने
नज़रों की निस्तब्धता को तोड़ा,
हम फिर भी
वैसे ही खामोश रहे,
नज़रों के सहारे ही
कुछ कहते रहे।
और चल पड़े अगले पल
वैसे ही खामोश, मौन,
निस्तब्धता लिए।
न पता कब तक
यूँ अनवरत,
शायद जनम-जनम तक,
इस जनम से उस जनम तक।

12 टिप्‍पणियां:

  1. बधाई डाक्साब,बहुत बहुत बधाई।

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  2. तीन शतकीय पोस्ट पर १०० वीं कविता..वो भी इतनी गहरी और शानदार..बहुत बहुत बधाई एवं हार्दिक शुभकामनाएँ.

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  3. एक दम यथार्थ और अपने आप से बातचीत करती कविता के साथ तीन सौवीं पोस्ट और सौवीं कविता मुबारक हो इस मुबारक मौके पर ढेर सी बधाइयाँ और शुभ कामनाएँ।

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  4. Triple century par ek aur additional century ki yaad..... :)
    badhai chacha ji..

    Jai Hind...

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  5. सिरहन मचाकर तन में
    मौन को तोड़ना चाहा,
    पर....
    सफर यूँ ही खामोश कटता रहा।
    बहुत सुन्दर है एहसास की यह कविता. 300वीं पोस्ट की बधाई.

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  6. तीनसौ विन पोस्ट के लिए इस से बढ़िया रचना और कौनसी हो सकती थी...आप को इस विलक्षण रचना और तीन सौ पोस्ट लिखने पर ढेरों बधाईयाँ..
    नीरज

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  7. ब्लॉग जगत में त्रि -शतकीय पारी खेलना आपके सकल्प की दृढ़ता का परिचयक तो है ही, साथ ही कड़ी म्हणत. अध्ययन और वैचारिक परिपक्वता का भी द्योतक है ,,..शत-शत बधाईयाँ और आशीष...
    १००वीं कविता सराहनीय है.
    "तुम्हारे लबों पर,
    तुम्हारे विचारों की लय पर
    पहरा लगा था समाज का,
    परदा पड़ा था
    शर्म और लाज़ का,
    पर मैं...मैं क्यों मौन रहा?
    क्यों खामोशी का दामन थामे
    यूँ चलता रहा?"
    ये पंक्तियाँ बहुत कुछ सोचने को मजबूर करतीं हैं. Go Ahead.My good wishes r with u .

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