02 अप्रैल 2009

कहाँ खोती जा रही है संवेदना?

संवेदनाओं का समाप्त होता जाना तो आसानी से देखा जा रहा है साथ ही यह भी दिख रहा है कि अब समाज में उन सारी बातों को भी मजाक का, हास्य का विषय बना दिया जाता है जिस पर किसी के भी आँसू आ सकते हैं। आजकल आप रिएलिटी शो (हास्य वाले) देखिए, देखकर ऐसा लगता है कि जबरन हम पर हँसी थोपी जा रही हो।
इन्हीं हास्य या कहें फूहड़ शो में हास्य के नाम पर ऐसे-ऐसे मुद्दों को भी उठाया जाता है, हास्य का विषय बनाया जाता है जिन पर हमें संवेदित होना चाहिए। आपने अवश्य ही गौर किया होगा कि इन शो में किसी की मौत को भी हास्य का विषय बना दिया जाता है, श्मशान घाट पर होने वाली अंतिम क्रियाविधि में भी हास्य तलाशा जाता है, दर्शकों के सामने परोसा जाता है।
यह हास्य के विषय हैं? ऐसे विषयों पर क्या हँसी आनी चाहिए? एक पल को वह स्थिति सोचिए किसी के परिवार में किसी का देहान्त हो गया है और हम ऐसे किसी दुःख वाले पल को हास्यमय बना रहे हैं।
इसी तरह से इन हास्य कार्यक्रमों में कभी किसी विकलांग की चाल-ढाल, उसके बोलने के ढंग को भी हास्य का विषय बनाकर पेश किया जाता है। इस तरह के कार्यक्रम जब कोई विकलांग व्यक्ति देखता होगा तो सोचिए उस पर, उसके परिवार पर क्या गुजरती होगी?
हम सब आजकल इन सब चीजों के मायामोह से मुक्त हो गये हैं। हमने संवेदना, अपनेपन को, रिश्तों को समाप्त कर दिया है। मायामोंह से विरत रहने की बातें तो गीता में भी कही गईं हैं, हमने अब जाकर मानी हैं। चलिए चलते हैं किसी भीड़-भाड़ वाली जगह पर, किसी ऐसी जगह पर जहाँ से हमें किसी की मौत से किसी की विकलांगता से कोई हास्य प्राप्त हो सके। हमें तो हँसाना है, किसी को दुःख होता हो तो हो।

चुनावी चकल्लस-

दाँव-पेंच की राजनीति, राजनीति के दाँव हैं,
सत्ता का संग्राम है, मचा आपस में घमासान है।
आपाधापी मची सभी में, लगी हुई काँव-काँव है,
कोई बाँटे नोट कहीं, किसी के मुख में आग है।

3 टिप्‍पणियां:

  1. एक एक शब्द सच्चा है आपका...हास्य के नाम पर रोना आता है देख कर...
    नीरज

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  2. पूरी तरह सहमत हूं आपसे। कोफ्त होती है ऐसे कार्यक्रम देख कर। अब तो देखना भी छोड़ दिया है।

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  3. सीध कह लीजिए ... संवेदनाएं मर गयी है अब ... व्‍यापार में जिससे फायदा हो ... उसे भूना लो ... आज का सत्‍य यही है।

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