घर से निकलने से डरता है आदमी,
अपने को कहीं फंसा समझता है आदमी.
हर कदम के साथ डर का साया रहता है,
ख़ुद को अपने से भय सा लगता है,
हवा तेज़ चले तो तूफ़ान का डर लगे,
रुके तो शमशान सी खामोशी दिखे.
है वक्त बेरहम, अब उससे डर लगे,
घड़ी की होती टिक-टिक से डर लगे.
क्या-क्या बताएं, किस-किस से डर लगे,
न हो कुछ आसपास तो भी डर लगे.
क्यों इस डर की घुसपैठ जीवन में है?
डर का डर क्यों घरों में है?
अपने-अपने में सिमटा है आदमी,
फ़िर डरने का डर किससे है?
भरे-पूरे घर में डर अपने से है,
अपने हज़ार चेहरों का ये डर है.
ओढे हुए आवरण के हटने का डर है,
अपने अस्तित्व के मिट जाने का डर है.
बहुत सार्थक रचना है।बहुत बढिया!
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