07 जुलाई 2008

गाँधी फ़िर चर्चा में

आज ब्लॉग पर सैर सपाटा करते समय उड़नतश्तरी पर गए तो वहां गाँधी जी से मुलाकात हो गई। समीर भाई को तो वे जुआघर में मिले, हम भारतियों को वे सड़क पर किसी कागज़ पर डाक-टिकट के रूप में चिपके मिल जाते हैं. क्या किया जा सकता है? उड़नतश्तरी पर गाँधी जी की हालत देख कर लगा कि गाँधी जी पर कुछ लिखा जाए, कुछ ऐसा जो लोगों के मन में रहता है पर तथाकथित बुद्धिजीवियों (मेरे विचार में बुद्धि-भोगियों) की जमात में बैठ कर कोई भी गाँधी को न बुरा कहता है न स्वयं को उनके विचारों के विरुद्ध बताता है। वैसे लिखने का विचार कई बार मन में आया था पर लगता था कि क्या लोग पचा पाएंगे? समीर भाई को मिली टिप्पणियों ने दिखाया कि लोग गाँधी जी को पचा लेंगे।

गाँधी जी के प्रति जहाँ तक मेरी अपनी सोच का सवाल है तो मैं बहुत हद तक उनके कई विचारों से सहमत नहीं हूँ. जहाँ तक हम नै पीढ़ी के लोगों का सवाल है तो उसको न तो गाँधी जी को सही रूप में पढाया जा रहा है न वो ख़ुद पढ़ना चाह रहा है. इस स्थिति में सही-ग़लत की परिभाषा तय करना हम लोगों का काम नहीं होना चाहिए, पर हम करते हैं, वो भी उस आदमी के विचारों का पोस्ट-मोर्तम जो अब इस संसार में नहीं है। बहरहाल, गाँधी जी को अकेले में या अपने लोगों के बीच गली देने वाले तमाम लोग मिल जायेंगे जो खुले मंच से उनकी प्रशंशा करते नहीं थकेंगे। वो मंच चाहे किसी भाषण का हो या पत्रिकाओं में लेख लिखने का हो या यहाँ ब्लॉग का हो.

अब बात गांधी जी की हो रही है तो वो क्या थे क्या नहीं, अच्छे थे या बुरे, उनके विचार सही थे या ग़लत सब बीती बातें हैं। आज देश विदेश में उनको मानने वालों के कई अलग-अलग समूह हैं. कोई उनको अच्छा कहता है कोई ख़राब, किसी की निगाह में वो देशभक्त हैं तो कोई उनको अंग्रेजों का एजेंट कहता है, कोई उनको देश की आजादी लेन वाला बताता है कोई क्रांतिकारियों को बताता है, कोई उनको भगत सिंह की फांसी की सज़ा माफ़ न करवाने पर दोषी मानता है कोई इसको सही ठहराता है. जितने मुंह उतनी बातें, किसे सही कहें किसे ग़लत कहें समझ में नहीं आता? आज़ादी लाने में जितना योगदान गाँधी जी का है उतना ही आजाद, भगत, सुभाष आदि का है. सुभाष गंशी का विवाद किसी से छिपा नहीं है. और तो और गाँधी जी की बात अंत समय में नेहरू ने भी नहीं मानी थी. बहरहाल बात ये नहीं है कि गाँधी जी क्या थे क्यों थे, लोगों के मन में उनके लिए क्या धारणा है?

आज गाँधी जी की स्थिति पर लिखने का मन इसलिए हो आया कि गाँधी जी जुआघर में खड़े होकर कम से कम कुछ लोगों को दिख रहे थे पर भारत देश में सरकार ने उनके सम्मान में डाक-टिकट तो बना दिया पर सोचा नहीं कि इससे वो गाँधी जी को सम्मान नहीं दुर्गति करवा रही है। एक साधारण सा इंसान जिसके लिए गाँधी का चित्र वाला वो टुकडा एक डाक-टिकट मात्र है वो गाँधी की अहमियत क्या जानेगा? हाथ में लिया मुंह से थूक लगाया और दे मारा ताकत से हाथ उसको चिपकाने के लिए। अब गाँधी जी के सहारे उसकी डाक चली जा रही है. यहाँ तक गनीमत थी तो भी ठीक था, पोस्ट-ऑफिस वालों ने तो ठप्पा लगा कर उनका मुंह ही काला कर दिया. क्या ऐसे गाँधी की जरूरत है हमें? सरकार ये सम्मान कर रही है या अपमानित कर रही है? ऐसा हाल मात्र गाँधी जी का ही नहीं हर उस सम्मानित व्यक्तित्व का है जो डाक-टिकट पर छपा है.

इसी तरह गाँधी के नाम पर लोगों को भाषण देते सुना है पर सदन में चप्पल चलते, गलियां देते भी उन्ही लोगों को देखा है। फ़िर गाँधी जी कहाँ प्रासंगिक हैं? हमारे भाषण देने में या ब्लॉग पर देख कर ऎसी टिप्पणी लिखने में जो सिद्ध करे कि हम भी गाँधीवादी हैं. (कहीं संजय दत्त की गांधीगीरी का असर तो नहीं?) वैसे ये भी मजेदार है कि गाँधी के देश को गांधीगीरी फिल्में सिखा रहीं हैं. गाँधी जी का सवाल उठता है तो तमाम कथित धर्म-निरपेक्ष लोगों का एक सुर से गाली देना शुरू होता है गुजरात सरकार को, गुजरात दंगों के लिए. ये तमाम लोग रोते हैं कि गाँधी के राज्य को कुछ लोगों ने कलंकित कर दिया. वे लोग रोते हैं दंगों में मरने वालों के लिए. सोचो क्या गोधरा में मरे लोग गाँधी के राज्य में नहीं मरे? गोधरा में मरने वाले क्या इंसान नहीं थे? अन्य राज्यों में मरते लोग क्या इंसान नहीं? क्या गुजरात के अलावा कोई दूसरा राज्य गाँधी का नहीं? इधर हद तो तब हो गई जब एक जाति-विशेष के लोगों ने गाँधी जी को उस जाति के समारोह का प्रमुख मान कर गाँधी को अपनी जाति का होना साबित किया.

जैसा कि मैंने शुरू में कहा था कि मैं व्यक्तिगत रूप से गाँधी के विचारों और नीतियों से कभी सहमत नहीं रहा हूँ. हाँ ये सही है कि देश की सोई जनता को जगाने का काम उन्हों ने अवश्य किया. पर कई ऎसी बातें, कई ऐसे बिन्दु हैं जो गाँधी जी को विवादित करते हैं, उन पर चर्चा फ़िर कभी. समझ में आ गया है कि ब्लॉग पर लोग गाँधी जी को पढ़ना चाहते हैं भले ही मन मार के पढ़ें. आख़िर बुद्धिजीवी (नहीं......नहीं बुद्धि-भोगी) जो बनना है. अब हम भी आते रहेंगे, गाँधी पर कुछ न कुछ लाते रहेंगे पर आप लोग सही कहिये कि क्या आप सब मन से गाँधी समर्थक हैं? या ऐसा बस ब्लॉग पर दिखाने के लिए या फ़िर पढ़े-लिखे लोगों के बीच पैठ बनाने के लिए किया जा रहा है? कुछ भी हो कम से कम अपने में तो ईमानदार रहिये.

3 टिप्‍पणियां:

  1. बातें गांधी पर अवश्‍य शुरू होती है किन्‍तु वह गांधी से आगे भी जाती है, यह भी बात समने आती है कि अपने तथा नेहरू के व्‍यक्तिगत हित को साधने के लिये गांधी जी ने कितने बलिदान लिये, लिस्‍ट एक दो की होती तो नाम लेकर खत्‍म कर दिया होता, किन्‍तु यह लिस्‍ट बहुत लम्‍बी है। ऐसे बहुत शहीदों को अपने प्राण सिर्फ गांधी अंहिसात्‍मक तलवार के कारण गवाने पड़े।

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  2. बात निकली है तो अब दूर तलक जायेगी….
    लोग जालिम हैं हर इक बात का ताना देंगे..
    बातों बातों में मेरा जिक्र भी ले आयेंगे….
    उनकी बातों का….

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  3. बिलकुल समर्थक हैं जी। अब आप कहेंगे, तो उनकी तरह आचार-व्‍यवहार क्‍यों नहीं करते? उनकी तरह लंगोटी लगाकर क्‍यों नहीं चलते? उनकी तरह सत्‍य क्‍यों नहीं बोलते?

    दरअसल हम लोग अपेक्षाएँ बहुत पालते हैं। यदि कोई व्‍यक्ति समाज सुधारक बनता है, तो हम यह सिद्ध कर देते हैं कि जब तक मन-कर्म-वचन से शत प्रतिशत त्‍याग नहीं कर देता, सच्‍चा समाज सुधारक नहीं हो सकता। हम भूल जाते हैं कि हर व्‍यक्ति की अपनी सीमाएँ होती हैं। गाँधी पर लेख लिखने या भाषण देने वाला व्‍यक्ति गाँधी नहीं बन जाता, तो क्‍या उसके योगदान / प्रयास को नकार देना चाहिए?

    स्‍वयं गाँधी जी भी समाज की इस अपेक्षा रखने वाली मनोवृत्ति के शिकार हुए। लोग गाँधी पर आक्षेप लगाते हैं कि उन्‍होंने यह नहीं किया, ऐसा नहीं किया, वैसा करते तो अच्‍छा होता। तो बंधु, समय अभी भी बीता नहीं है। कोई विशेष फर्क नहीं पड़ा है, बस, अंग्रेज चले गए हैं। बहुत गुंजाइश बाकी है। अच्‍छा है कि आप गाँधी की कमियों को समझ रहे हैं, उन्‍हें न दुहराते हुए, अपनी समझ में और बची-खुची अच्‍छाइयों को अपनाते हुए काम करें। आपकी सराहना करने के लिए हम मौजूद हैं।
    - आनंद

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