10 जुलाई 2008

"छीछालेदर रस" वही पुरानी कहानी

बहुत अरसे से मैं लेखन से जुदा हूँ। इसी बीच बिना प्रयास के पत्रकारिता में भी प्रवेश पा गया. तब पता लगा कि यदि किसी लेखक को पत्रकारिता का शौक (भूत) लग जाए तो अच्छी-भली स्थिति की खाट खडी हो जाए. उसका एक अहम् कारण है बाल की खाल निकालने वाला मुहावरा, वो यूँ कि कोई लेखक बाल की खाल निकालता है और यदि ऐसे में वो कहीं पत्रकार हुआ तो समझो कि बाल की खाल तो निकलेगी ही उस खाल में भी एक बाल वो पैदा करेगा और फ़िर उसकी खाल निकालेगा. ऐसी स्थिति को देख कर मैंने तुंरत एक नए रस का निर्माण कर दिया. अपनी तरफ़ से किसी भी बात को, किसी भी स्थिति को देख उसमें कुछ नया, अलग सा खोजने की कोशिश और बना दिया नया-नवेला रस "छीछालेदर रस". बहरहाल इस रस पर चर्चा बाद में क्योंकि रसों की चर्चा सरल, सहज नहीं है पर ये विश्वास है कि हमारे बनाए इस "छीछालेदर रस" की चर्चा सरस एवं सरल होगी. फ़िर कभी..............ठीक है.

अभी इस रस से सराबोर एक किस्सा। ये किस्सा हम इस समय लगातार देख रहे हैं पर "छीछालेदर" के साथ देखिये तो शायद मजा आएगा। परमाणु करार पर लगातार धमकी, लगातार सरकार गिराने का प्रयास और हो गया मन का. ये स्थिति तो तब आई जब सरकार परमाणु समझौता करने की बात कर रही है. लेफ्ट की स्थिति तो ये है कि यदि सरकार शुरू से इस करार के ख़िलाफ़ रहती तो लेफ्ट इस कारण सरकार गिरती कि सरकार करार का समर्थन क्यों नहीं कर रही है. मतलब लेफ्ट को सरकार गिरानी ही गिरानी थी चाहे समर्थन करो चाहे न करो. सत्ता का मजा खूब लूटा अब चुनाव आते ही ठीकरा फोड़ा सरकार के सर. ये तो हमेशा से यही करते आए हैं.......ऐसे लोगों की हालत से परेशां एक बाप-बेटे की कहानी है आज के "छीछालेदर रस" की.

एक गाँव में एक बाप-बेटे ने घोड़ा खरीदने का विचार किया और पहुँच गए मेले में घोड़ा खरीदने। घोड़ा खरीदा और बापस चल दिए अपने गाँव की तरफ़. बेटे ने कहा "पिताजी आप बुजुर्ग हैं आप घोडे पर बैठ जाइये मैं पैदल चल लूँगा." पिता घोडे पर बैठ गया, बेटा पैदल चलने लगा. मेले से निकल कर अपने गाँव के रस्ते में पड़ते पहले गाँव में पहुंचे तो लोगों ने कहा "देखो कितना कसाई बाप है, ख़ुद तो घोडे पर लदा बैठा है और बेटे को पैदल चला रहा है."

पिता को लगा लोग सही कह रहे हैं। मुझे बड़े होने के नाते पैदल चलना चाहिए और अपने बेटे को घोडे पर बैठना चाहिए. ऐसा सोच कर पिता घोडे से उतर गया और अपने बेटे को घोडे पर बिठा दिया. अब घोडे पर बेटे बैठा था, पिता पैदल चल रहा था. रस्ते में दूसरा गाँव मिला. लोगों ने देखा तो फ़िर वही लोगों की बक-बक "देखो संस्कार, सभ्यता तो रह ही नहीं गई है, बाप बुजुर्ग है और पैदल चल रहा है. बेटा जवान, चुस्त-दुरुस्त तो घोडे पर शान से बैठा है.......थू ऐसी औलाद पर जो अपने होता बाप को पैदल चला रही है."

बाप-बेटे ने सलाह की कि अभी जब बेटे पैदल चल रहा था तो लोगों ने भला-बुरा कहा, अब जब कि बाप पैदल चल रहा है तो भी लोगों को अच्छा नहीं लगा। ऐसा किया जाए कि कोई पैदल न चले, दोनों लोग घोडे पर बैठ जाते हैं. ऐसा विचार आपस में करके दोनों (बाप-बेटे) एक साथ घोडे पर बैठ कर अपने गाँव की तरफ़ जाने लगे. रास्ते के तीसरे गाँव में जब उन दोनों ने प्रवेश किया तो डरे कि पता नहीं लोग क्या कहें? हुआ कुछ ऐसा, जैसे ही थोड़ा आगे चले, वहां बैठे लोगों ने कहा "देखो तो ज़माना, दया-धर्म नाम की कोई भी चीज़ नहीं बची है. एक बेचारा घोड़ा और उस पर दो-दो लोग चढ़े बैठे हैं. ये नहीं कि एक बैठे, एक पैदल चले. मारे दे रहे हैं घोडे को.....राम....राम."

बाप-बेटे ने एक दुसरे का मुंह देखा और चुपचाप गाँव से बाहर आ गए। अब उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए? ये ज़माना तो किसी में खुश नहीं है. न बाप के बैठने में, न बेटे के बैठने में, न दोनों के एक साथ बैठने पर. तब किया क्या जाए? सोचते-सोचते दोनों ने फ़ैसला किया कि अब दोनों लोग पैदल ही चलेंगे.

अब ऐसा विचार कर दोनों पैदल चलते हुए गाँव की तरफ़ बढ़ने लगे। गाँव पहुँचने से पहले हीएक और गाँव मिला. अब दोनों को कोई डर नहीं लग रहा था कि कोई क्या कहेगा क्योंकि दोनों ही पैदल चल रहे थे. पर ऐसा होता कहाँ है कि लोग किसी को चैन से जीने दे. यहाँ भी यही हुआ, जो दो-चार लोग बैठे थे हँसे और बोले "देखो बेवकूफों को, घोड़ा लिए हैं पर पैदल चले जा रहे हैं. यदि घोडे पर बैठना ही नहीं है तो ले क्यों लिया? पैदल तो बिना घोडे के भी चल सकते थे."

बाप-बेटा अब समझ चुके थे कि समाज को किसी भी स्थिति में संतुष्ट नहीं किया जा सकता है। वे दोनों लोगों के कटाक्षों से इस हद तक परेशां, हताश हो चुके थे कि समझ नहीं पा रहे थे कि करना क्या है? दोनों ने रुक कर पूरी स्थिति पर विचार किया और समझा कि किसी भी स्थिति में वे सफल नहीं हो सकते हैं. गुस्से में, खीझ में, हताशा में, नाराजी में, परेशानी में उन दोनों ने कहा कि इससे भले तो वे बिना घोडे के थे. बस उनको आइडिया आ गया कि करना क्या है.............बिना समय गुजारे दोनों ने घोडे की लगाम को छोड़ उसको भगा दिया. बोले न रहेगा घोड़ा........न होगी परेशानी.

कुछ समझे आप....................नहीं? समझेंगे कैसे, ये तो मनमोहन सिंह से पूछिये.

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें