आये दिन चर्चा होती
है फिल्मों में तुष्टिकरण के सम्बन्ध में. नायक को हिन्दू देवी-देवताओं से नफरत होती
है पर 786 के बिल्ले पर विश्वास
होता है. साधु-संत ढोंगी दिखाए जाते हैं मगर मौलवी-मौलाना विश्वासी होते हैं. ऐसी अनेकानेक
घटनाएँ हैं, अनेकानेक फ़िल्में हैं.
गौर करियेगा, ये फ़िल्मी बातें आज़ादी
के बहुत बाद की हैं. किसी दौर में तो मुस्लिम अभिनेताओं को भी अपना स्थान बनाये रखने
के लिए हिन्दू नाम अपनाने पड़े थे. बहरहाल, फिल्मों में इस तरह की हरकतें आज़ादी के बहुत बाद शुरू हुईं जबकि हिन्दू पात्र खलनायक
और मुस्लिम पात्र नायक दिखाए गए. हिन्दू आस्था को ढोंग बताया गया और इस्लामिक पद्धति
को स्वीकारा गया.
आज़ादी के बहुत पहले
1933 में एक कहानी प्रकाशित हुई
थी ईदगाह, आप सबने पढ़ी होगी. लेखक
हैं इसके प्रेमचन्द. गौर करियेगा, इस कहानी में हामिद दया का मानक बनता है, अपनी दादी के लिए चिमटा खरीदता है. आखिर ऐसा पात्र हिन्दू
भी गढ़ा जा सकता था लेकिन प्रेमचन्द ने नहीं गढ़ा. प्रेमचन्द ने हिन्दू पात्र में रचा
घीसू और माधव को, कहानी को (उपन्यास)
नाम दिया कफ़न. जिस-जिसने इसे पढ़ा होगा वे अंदाजा लगा सकते हैं कि किस तरह का हिन्दू
पात्र रचा गया. ऐसा उस लेखक द्वारा किया गया जिसे उपन्यास सम्राट कहा गया. जिसकी कोई
फंडिंग इस्लामिक देशों से नहीं थी. समझना कठिन नहीं कि हिन्दू विरोधी नैरेटिव बरसों
से बहुत ही सहजता के साथ चलाया-फैलाया जाता रहा है.
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