केन्द्र सरकार ने
जातिगत जनगणना की स्वीकृति देकर समूचे देश में राजनैतिक हलचल पैदा कर दी है. जातिगत
जनगणना की स्वीकृति मिलते ही विपक्षी दलों ने इसे अपनी जीत घोषित कर दिया. ऐसा
इसलिए क्योंकि विपक्षी दल लम्बे समय से इसकी माँग करते रहे हैं. ऐसे समय में जबकि
सभी राजनैतिक दलों के साथ-साथ समूचे देश का ध्यान पहलगाम आतंकी हमले की तरफ था, केन्द्र सरकार का जातिगत जनगणना
करवाने का निर्णय न केवल चौंकाने वाला है बल्कि अप्रत्याशित भी है. राजनैतिक
विश्लेषकों का मानना है कि केन्द्र सरकार के इस निर्णय के पीछे बिहार का आगामी
विधानसभा चुनाव है. यह एक तरह से सही भी हो सकता है क्योंकि बिहार में राहुल गांधी
और तेजस्वी यादव द्वारा जातिगत जनगणना को आधार बनाकर भाजपा के विरुद्ध, नीतीश कुमार के विरुद्ध माहौल बनाया जाना निश्चित था.
जातिगत जनगणना देश
के लिए अथवा देश के इतिहास की अनोखी घटना नहीं है. अंग्रेजी शासन में 1881 से लेकर
1931 तक जातिगत जनगणना होती रही थी. यदि जातिगत जनगणना की समयावधि को देखें तो
लगभग सौ वर्षों के बाद यह पुनः होने जा रही है. यद्यपि स्वतंत्रता के पूर्व 1941
में भी जातिगत जनगणना करवाई गई थी तथापि उसके आँकड़ों को प्रकाशित नहीं करवाया गया
था. देश की आज़ादी के बाद भी एक तरह से जातिगत जनगणना होती आई है किन्तु उसे
सम्पूर्ण न कहकर आंशिक कहा जा सकता है क्योंकि उसमें अनुसूचित जातियों और
जनजातियों की ही गणना होती रही है. यह गणना 1951 से लेकर 2011 तक होती रही है.
2011 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण
करवाकर जातिगत आँकड़ों की पहचान करने का प्रयास किया गया था किन्तु इस सर्वेक्षण के
जातिगत आँकड़े प्रकाशित नहीं हो सके थे. विपक्षी दलों द्वारा केन्द्र सरकार पर
जातिगत जनगणना करवाए जाने का दबाव लगातार बनाया जाता रहता था किन्तु कांग्रेस
द्वारा हमेशा इसका विरोध किया गया. ऐसे में राहुल गांधी का जातिगत गणना के लिए
सर्वाधिक सक्रिय रहना,
इस माँग के मामले में अन्य विपक्षी दलों को पीछे छोड़ देना हैरान करने वाला है.
इस तरह की
स्थितियाँ देखने के बाद ऐसा समझ आ रहा है कि विपक्षी दल हों या फिर केन्द्र सरकार,
सभी के लिए जातिगत जनगणना एक राजनैतिक खेल है. इसके द्वारा समाज के या कहें
मतदाताओं के बहुत बड़े वर्ग को साधने का प्रयास किया जा रहा है. पिछले कुछ सालों
में भाजपा द्वारा जिस तरह से ओबीसी में अपना जनाधार मजबूत किया है, वह उन तमाम दलों के लिए परेशानी और
चिंता का कारण बना हुआ है जिनके लिए ओबीसी वोट-बैंक रहा है. इसी तरह कांग्रेस, जिसने ओबीसी आरक्षण का हमेशा ही विरोध किया है, के
द्वारा ओबीसी को जातिगत जनगणना के, आरक्षण के लाभ समझाना राजनैतिक खेल ही है. यह
सही है कि सामाजिक कल्याण के लिए समाज की मुख्यधारा में सभी जातियों, उपजातियों का शामिल होना आवश्यक है. यह भी सही है कि एकमात्र आरक्षण के
रास्ते से चलकर समाज का अथवा सभी जातियों-उपजातियों का भला नहीं हो सकता.
समाजोत्थान के लिए आवश्यक है कि आरक्षण की नीतियों के साथ-साथ समाज कल्याण की अन्य
योजनाओं को भी सबके बीच पहुँचाया जाये.
ऐसे में जबकि
जातिगत जनगणना की स्वीकृति मिल चुकी है तब सवाल उठता है कि आरक्षण की सीमा लगातार
बढ़ती रही है किन्तु इसका लाभ सभी को प्राप्त नहीं हो सका है तो क्या जातिगत जनगणना
का लाभ वास्तविक रूप में मिल सकेगा? विभिन्न सरकारों द्वारा नियमित रूप से ऐसे प्रयास किये जाते रहे हैं कि
आरक्षण का लाभ यथोचित वर्ग तक, उपयुक्त व्यक्तियों तक
पहुँचे. बावजूद इसके अभी भी पिछड़ों-वंचितों-शोषितों की संख्या पर्याप्त रूप में
देखने को मिलती है. अभी भी बहुत बड़ी संख्या में ऐसे परिवार हैं जिनके द्वार तक
आरक्षण नहीं पहुँच सका है. ऐसे में यह कहना उचित प्रतीत नहीं होता है कि बिना
जातिगत जनगणना के समाज के वंचित वर्ग तक, ओबीसी तक, एससी-एसटी तक आरक्षण सहित अन्य योजनाओं का लाभ नहीं पहुँचेगा. क्या जातिगत
जनगणना के बाद प्राप्त आँकड़ों के आधार पर देश के संसाधनों का बँटवारा कर देना ही सामाजिक
समस्याओं का समाधान है? क्या देश में अनेकानेक नीतियाँ, परियोजनाएँ जातिगत आँकड़ों के आधार पर बनाई जाएँगी? जातिगत
जनगणना की स्वीकृति मिलने के साथ ही इस पर भी प्रश्नचिन्ह लगता है कि क्या ऐसी
गणना सिर्फ हिन्दुओं के सन्दर्भ में ही होगी अथवा इसके दायरे में मुसलमान, ईसाई, सिख, बौद्ध आदि सहित अनेक समुदायों को भी लाया
जायेगा?
देखा जाये तो अभी
जातिगत जनगणना की स्वीकृति केन्द्र सरकार द्वारा दी गई है किन्तु इसके आँकड़े आने
के बाद उसके क्रियान्वयन पर, उसके व्यावहारिक पक्ष की तरफ ध्यान दिया जाना आवश्यक होगा. इस जनगणना के
लाभ-हानि के सम्बन्ध में भी उसी समय उचित रूप में ज्ञात हो सकेगा. एक ऐसे राजनैतिक
वातावरण वाले देश में जहाँ सामाजिक कल्याण, सामाजिक न्याय की
बात भी जातियों को केन्द्र में रखते हुए की जाती है; जहाँ एक-एक व्यक्ति खुद को
जाति विशेष का प्रतिनिधि साबित करते हुए संसद तक पहुँच जाता है; जहाँ जातिगत आधार किसी भी राजनैतिक दल के लिए प्रतिष्ठा का सवाल बन जाता
है; जहाँ चुनावों में क्षेत्र, विकास, नीति आदि प्रमुख न होकर जाति ही सर्वोपरि हो जाती है वहाँ जातिगत जनगणना
सम्बन्धी राजनीति वैमनष्यता को बढ़ावा देने वाली हो सकती है. इस तरह की राजनीति
जिसमें कि देश के, समाज के विकास से अधिक महत्त्वपूर्ण जातीय
विभाजन हो, राजनैतिक दलों के जनाधार को कमजोर करना हो उससे
सामाजिक एकजुटता ही कमजोर होगी.
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