30 दिसंबर 2024

रामलला हम आ गए हैं, मंदिर वहीं बना गए हैं

रामलला की प्राण प्रतिष्ठा होने के बाद से ही मन में अभिलाषा थी श्रीराम जन्मभूमि मंदिर जाने की, रामलला के दर्शन करने की. इसके पीछे किसी तरह के भक्तिभाव से ज्यादा अपनी संस्कृति, अपने संस्कारों, राष्ट्रीय भाव-बोध के संवाहक के दर्शन करने का भाव था. भीड़-भाड़ के दौरान उत्पन्न होने वाली अनेकानेक दिक्कतों से बचने के लिए ही प्राण प्रतिष्ठा वाले दिन अयोध्या जाने का कार्यक्रम नहीं बनाया था. बहरहाल, लगभग एक वर्ष की समयावधि में ही रामलला के दर्शन करने का अवसर स्वतः ही सामने आ गया. छोटे भाइयों की व्यापारिक-व्यावसायिक मीटिंग का केन्द्र अयोध्या होने पर उनके द्वारा साथ चलने का स्नेहिल प्रस्ताव सामने रखा गया, जिसे बिना एक पल की देरी किये हमने लपक लिया. वर्ष 2024 के निपट अंतिम दिनों में बिना किसी पूर्व-योजना के अयोध्या धाम पहुँचना हो गया.

 





29 दिसम्बर की शाम को अयोध्या धाम में प्रवेश करने के बाद छोटे भाई तो अपनी व्यावसायिक मीटिंग के लिए निकल गए, हम चल दिए रामलला के दर्शन की इच्छा लिए, श्रीराम जन्मभूमि मंदिर देखने की इच्छा में. समय का तारतम्य कुछ ऐसा रहा कि रामलला के दर्शन तो आज नहीं हो सके मगर वहाँ से सम्बंधित तमाम सारी जानकारियाँ एकत्र कर ली गईं, ताकि अगली सुबह पूर्व-निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार यहाँ आने पर किसी तरह की दिक्कत न हो. रात को नौ बजे के बाद भी हजारों की संख्या में श्रद्धालु, दर्शनार्थी मंदिर परिसर में नजर आ रहे थे. अगले दिन सुबह-सुबह श्रीराम जन्मभूमि मंदिर प्रांगण में रामलला के दर्शन हेतु पहुँचना हो गया. आरम्भिक औपचारिकताओं को पूरा करने के बाद हम लोगों के कदम आगे की तरफ चल पड़े.

 

श्रीराम जन्मभूमि प्रांगण में आने के बाद कदम-कदम पर न चाहते हुए भी आँखें सजल हो उठतीं. हर कदम पर याद आता वो दौर जब कारसेवकों ने अपने प्राणों की आहुति दी थी. कैसे तुष्टिकरण की राजनीति ने अनेकानेक कारसेवकों को मौत की नींद सुला दिया था. मंदिर की तरफ़ बढ़ता हर कदम याद दिलाता कि किस तरह के कष्ट-अपमान सहने के बाद ये गर्व का क्षण देखने को मिला है. श्रीराम मंदिर विरोधी बात-बात पर बाबरी ढाँचे के ध्वंस को महज राजनीति बताते और कटाक्ष करते. ऐसे ही दौर में जबकि रामलला को एक टेंट की छाया उपलब्ध कराई जा रही थी, श्रीराम मंदिर के, रामलला के दर्शन हेतु अयोध्या जाना हुआ था. तत्कालीन प्रदेश सरकार की व्यवस्था इस तरह से थी जैसे रामलला के दर्शन के स्थान पर कोई अपराध करने आ गए हों. सुरक्षा व्यवस्था में लगे पुलिसकर्मियों का व्यवहार, उनकी बातचीत, भाषा-शैली को कोई भी सामान्य व्यक्ति सुनना पसंद नहीं करेगा. उनके अन्दर ऐसा भाव था ही नहीं कि उनके सामने खड़ा व्यक्ति, रामलला के दर्शन करने को आया श्रद्धालु किसी भी तरह की सामान्य जानकारी ही माँग रहा है, न कि किसी तरह का अपराध कर रहा है.

 





सुरक्षा व्यवस्था में लगे पुलिस कर्मियों की अतिवादिता, अहंकार, अभद्र कार्य-शैली के चलते किसी दिन उस तंग गली के भीतर से टेंट में विराजमान रामलला के दर्शन हेतु पहुँचने को नकार दिया था. उन पुलिस कर्मियों के कथित अहंकार के ऊपर श्रीराम जन्मभूमि मंदिर का गर्वीला भाव प्रचंड रूप में हावी था. उनके व्यवहार, भाषा-शैली के बाद वहीं तुरंत ही उनके अधिकारियों के समक्ष एक जिद को पकड़ लिया. उनसे स्पष्ट भाषा में कहा कि अब उसी दिन रामलला के दर्शन करने आयेंगे जबकि हम हैलीकॉप्टर से उतरेंगे और आप लोग हमारी सुरक्षा व्यवस्था में होंगे या फिर उस दिन आयेंगे जब श्रीराम जन्मभूमि मंदिर बन जायेगा. उस दिन अपनी जिद में रामलला के दर्शन किये बिना वापस लौट आए थे मगर मन में एक विश्वास था कि किसी न किसी दिन हम मंदिर के भीतर पहुँचकर रामलला के दर्शन करेंगे. उन तंग, सँकरी गलियों के स्थान पर चौड़ी, चमचमाती सड़कें हजारों-हजार श्रद्धालुओं को सहज भाव से आगे चलते रहने का स्थान उपलब्ध करवा रही थीं. किसी दिन पूरे अहंकारी भाव में तैनात खाकी सेना अब पूरे आदर-भाव के साथ एक-एक जानकारी देने को तत्पर थी. बात-बात पर सर-सर की अनुगूँज, हँसते-मुस्कुराते हुए हजारों की भीड़ को आगे का रास्ता बनाती सुरक्षा व्यवस्था से लग रहा था कि आज हिन्दू वास्तविक रूप में अपनी संस्कृति के प्रांगण में है.

 

उस सुसज्जित, भव्य प्रांगण में खड़े होकर स्मरण हो आया वो दौर जब छात्र-जीवन में कंठ से स्वर गूँजता था

रामलला हम आयेंगे, मंदिर वहीं बनायेंगे”

बच्चा बच्चा राम का, जन्मभूमि के काम का”


उस समय में जबकि रामलला के दर्शन करने के बाद सुरक्षा व्यवस्था की औपचारिता से बाहर निकले तो खुद को उसी प्रांगण के साथ समाविष्ट करने का भाव जागा. मोबाइल, कैमरे के द्वारा पावन परिसर को सदैव के लिए सुरक्षित कर लेने का भाव जागा. ऐसी स्थिति में भाव-व्हिवल मन-संवेदन, आँखों की नमी और कैमरे में सामंजस्य बिठाना कठिन हो रहा था. दोनों का समन्वय न बन पाने से ज़्यादा मुश्किल हो रहा था ख़ुद का उस पावन भूमि के साथ तादाम्य स्थापित कर पाना. बहरहाल, “तारीख़ नहीं बतायेंगे” जैसी कटुक्ति सुनने के दौर को सहने के बाद अब स्वतः ही “रामलला हम आ गए हैं, मंदिर वहीं बना गए हैं” की गर्वोक्ति निकलनी स्वाभाविक थी और हजारों की भीड़ के बीच स्वतः प्रस्फुटित हुई भी.

 

जय श्रीराम

 


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