लगभग तीन सप्ताह
तक चला पेरिस ओलम्पिक बहुत सारे खिलाड़ियों के लिए खुशियों की बारिश लाया तो बहुत
से खिलाड़ियों के लिए निराशा का पल. भारतीय खिलाड़ियों के सन्दर्भ में सभी की अपनी-अपनी
दृष्टि है, अपना-अपना
नजरिया है. 117 खिलाड़ियों और 140 अधिकारियों-सहायकों की टीम की कुल सफलता मात्र छह
पदक प्राप्त करना ही रही. अनेक भारतीय खिलाड़ी पदक की दौड़ में बहुत जल्दी बाहर हो
गए, कुछ खिलाड़ी अपना बेहतर प्रदर्शन करते हुए पदकों की दौड़ में भले बने रहे मगर
अंतिम रूप से पदक प्राप्त नहीं कर सके.
निस्संदेह ओलम्पिक
जैसा खेल आयोजन जबरदस्त प्रतिस्पर्धात्मक होने के साथ-साथ मानसिक और शारीरिक दबाव
पैदा करने वाला होता है. किसी भी स्पर्धा के अंतिम-अंतिम क्षणों तक खिलाड़ी को अपनी
ऊर्जा, अपनी शक्ति, अपना विश्वास बनाये-बचाए रखना ही उसे विजयी बनाता है. देखा जाये तो अब
ओलम्पिक ही नहीं किसी भी खेल आयोजन में किसी भी खिलाड़ी के लिए ऊर्जा, विश्वास, संयम बनाये रखना एक चुनौती है. जिस तरह से
पढ़ते-सुनते आये हैं कि खेल आपस में समन्वय बढ़ाते हैं, एक
स्वस्थ प्रतिस्पर्धा को जन्म देते हैं, सहयोगी भावना का
विकास करते हैं वैसा अब बहुत कम या कहें कि न के बराबर देखने को मिलता है. अब
खिलाड़ियों में आपस में सहयोग, समन्वय,
मैत्री-भाव से ज्यादा शत्रुता, कटुता का भाव देखने को मिलता
है. उनके अन्दर विजयी होने की मानसिकता इस कदर हावी है कि वे साथी प्रतिद्वन्द्वी
खिलाड़ी का अहित करने से भी नहीं चूकते हैं. इसी पेरिस ओलम्पिक में भारतीय महिला
पहलवान निशा दहिया को मैच के दौरान लगी चोट इसी नकारात्मक प्रतिद्वंद्विता का
उदाहरण है. कुश्ती, मुक्केबाजी सहित अनेक खेलों में
खिलाड़ियों के बीच अब स्वस्थ प्रतिस्पर्धा की जगह आक्रामकता,
वैमनष्यता नजर आने लगी है.
खेलों में विजयी
होने की भावना उचित है मगर विजयी होने के लिए, पदक, ट्रॉफी, सम्मान आदि पाने की चाहत
में नकारात्मक प्रतिस्पर्धा ने खेल भावना को ठेस पहुँचाई है. सिर्फ और सिर्फ जीतने
की भावना ने खिलाड़ियों को भी यातना, यंत्रणा के दौर से
गुजरने को मजबूर किया है. विभिन्न खेलों के कोच द्वारा, ट्रेनर द्वारा अपने
खिलाड़ियों को कठिन से कठिनतम अभ्यास करवाए जाने की खबरें समय-समय पर देखने-सुनने
को मितली रही हैं मगर इस ओलम्पिक में खिलाड़ियों की शारीरिक,
मानसिक यंत्रणा का उदाहरण देखने को मिला. कुश्ती प्रतिस्पर्धा में भारत की महिला
पहलवान विनेश फोगाट को फाइनल में सौ ग्राम वजन अधिक होने के कारण अयोग्य घोषित कर
दिया गया. दो किलो वजन को कम करने के लिए फोगाट रात भर जागकर कसरत करती रहीं, यहाँ तक कि उन्होंने अपना खून भी निकलवाया. यह किसी खिलाड़ी द्वारा अथवा
उसके कोच द्वारा एक तरह की यातना है. सेमीफाइनल जीतने के बाद फोगाट ने न कुछ खाया
और न ही पानी पिया. रात भर कसरत करने, कुछ न खाने-पीने, खून निकलवाने का दुष्परिणाम
यह हुआ कि फोगाट को निर्जलीकरण की स्थिति में अस्पताल में भर्ती करवाया गया.
ये दो उदाहरण उस
मानसिकता की बानगी भर हैं, जिसमें कोई खिलाड़ी सिर्फ और सिर्फ जीतना चाहता है. वह अपने विरोधी खिलाड़ी
को चोट पहुँचाकर जीत रहा है अथवा खुद को शारीरिक-मानसिक कष्ट देकर, इसका उसके लिए
कोई अर्थ नहीं. सोचने वाली बात है कि नेहा दहिया को इस तरह की चोट लग जाती कि उनका
हाथ, कंधा सदैव के लिए काम करना बंद कर देता तो क्या इसे
विरोधी खिलाड़ी की खेल भावना, स्वस्थ प्रतिस्पर्धा कहा जाता?
क्या पदक वाकई इतना महत्त्वपूर्ण था कि उसके लिए विनेश फोगाट ने खुद को जोखिमपूर्ण
स्थिति में डाला? जीतने के प्रति, पदक
के प्रति, सम्मान के प्रति एक तरह की जिजीविषा अवश्य होनी
चाहिए मगर उसके लिए आक्रामकता, हिंसात्मक रवैया, बैर-भाव जैसी मानसिकता अपनाने की आवश्यकता नहीं. खेलों के द्वारा स्वस्थ
समाज बनाने की परिकल्पना रखने के बाद भी खेलों को, खिलाड़ियों
की आपसी स्पर्धा को इस तरह से प्रस्तुत किया जाता है जैसे वे किसी रण में जा रहे
हों. ‘महासंग्राम’, ‘क्रिकेट का विश्वयुद्ध’, ‘खिलाड़ियों के बीच जंग’ आदि शब्दावली का उपयोग किया जाना ऐसा लगता है
जैसे दो देशों अथवा दो खिलाड़ियों के बीच खेल नहीं बल्कि युद्ध चल रहा हो.
खेल में आक्रामकता
किसी भी शारीरिक, मौखिक व्यवहार से जुड़ी होती है, जिसका मुख्य उद्देश्य विरोधी को
चोट पहुँचाकर विजय प्राप्त करना होता है. आक्रामकता यदि स्वस्थ प्रतिस्पर्धा के
चलते हो तो उससे खिलाड़ी को, खेल भावना को ठेस नहीं पहुँचती है मगर जब यह नकारात्मक रूप में अपनाई
जाती है तो इसके नुकसान खेल और खिलाड़ी ही उठाते हैं. आज आवश्यकता इसकी है कि कोच,
अधिकारी और खिलाड़ी निष्पक्ष खेल भावना को बढ़ावा दें, खेल के नियमों
का सम्मान करें, विरोधी खिलाड़ी के प्रति सद्भाव बनाये रखें. यदि
इस तरह का अनुशासन खिलाड़ियों द्वारा नहीं अपनाया जाता है तो निश्चित ही खेलों, खेल भावना को ही क्षति पहुँचेगी और इसका खामियाजा खिलाड़ियों को ही उठाना
पड़ेगा.
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