उच्च शिक्षा
क्षेत्र में सक्रियता से अपनी भूमिका का निर्वहन करता विश्वविद्यालय अनुदान आयोग
(यूजीसी) इस क्षेत्र में गुणवत्ता बनाये रखने हेतु कदम उठाता रहता है. शोध कार्य
को लेकर यूजीसी द्वारा विशेष रूप से कार्य किया जा रहा है. उच्च शिक्षा से सम्बद्ध
संस्थानों में अध्यापन के साथ-साथ शोध कार्य को लेकर अनेक सुधार किये गए. अनेक
सुधारात्मक उपायों के बीच अभी हाल ही में यूजीसी द्वारा एक बड़ा निर्णय लेते हुए पी-एच.डी.
के लिए अब राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा (नेट) उत्तीर्ण करना अनिवार्य कर दिया गया
है. अभी तक नेट परीक्षा के माध्यम से दो श्रेणियों में परीक्षार्थी उत्तीर्ण होते
थे. इसके माध्यम से एक तरफ जेआरएफ के लिए विद्यार्थी चयनित किये जाते थे, दूसरी तरफ उत्तीर्ण विद्यार्थी
असिस्टेंट प्रोफ़ेसर पद की पात्रता प्राप्त कर लेते थे. यूजीसी के इस नए बदलाव के
बाद नेट परीक्षा उत्तीर्ण करने वाले विद्यार्थियों की एक तीसरी श्रेणी भी अस्तित्व
में आ गई है. अब नेट परीक्षा उत्तीर्ण करने वाले विद्यार्थियों को पी-एच.डी. करने
की पात्रता भी प्राप्त हो सकेगी. जून 2024 की नेट परीक्षा के लिए यूजीसी द्वारा
जारी अधिसूचना में इस बदलाव को शामिल किया गया है.
विगत कुछ वर्षों
से पी-एच.डी. में नामांकन हेतु विश्वविद्यालय स्तर पर प्रवेश परीक्षा का आयोजन
करवाया जा रहा है. इसमें चयनित विद्यार्थी ही पी-एच.डी. हेतु अपना नामांकन करवा
पाता है. इधर देखने में आ रहा था कि बहुत से विश्वविद्यालय समय से पी-एच.डी. हेतु
परीक्षा का आयोजन नहीं करवा रहे हैं. इसके अलावा यह भी देखने में आया कि पी-एच.डी.
में प्रवेश को लेकर यथोचित मानकों का पालन नहीं किया जा रहा है. इससे ऐसे लोगों
द्वारा अनावश्यक रूप से प्रवेश लिया जा रहा है जिनका न तो शोध से कोई लेना-देना है
और न ही उच्च शिक्षा से. ऐसी स्थिति के चलते यूजीसी शोध कार्य में गुणवत्ता और
उच्च शिक्षा क्षेत्र में सुधार की जिस व्यवस्था को लागू करना चाह रही है, वह भी पूरी नहीं हो पा रही है. इसे
देखते हुए नेट परीक्षा के माध्यम से पी-एच.डी. करने की नई व्यवस्था लागू किये जाने
के साथ ही यूजीसी ने विश्वविद्यालयों द्वारा ली जाने वाली प्रवेश परीक्षा व्यवस्था
को पूरी तरह से समाप्त कर दिया है.
यूजीसी द्वारा नेट
के माध्यम से पी-एच.डी. हेतु नामांकन की व्यवस्था किये जाने से निश्चित रूप से उन
विद्यार्थियों को प्रोत्साहन मिलेगा जो वास्तविकता में इसके लिए अपना नामांकन
चाहते हैं. इस व्यवस्था से उन विद्यार्थियों का विभिन्न विश्वविद्यालयों की पी-एच.डी.
सम्बन्धी प्रवेश परीक्षाओं हेतु भटकने से बचना होगा जो वास्तविक रूप में उच्च
शिक्षण संस्थानों में अध्यापन कार्य को अपना लक्ष्य बनाये हुए हैं. नेट परीक्षा के
माध्यम से जहाँ वे असिस्टेंट प्रोफ़ेसर बनने की पात्रता प्राप्त कर लेंगे वहीं पी-एच.डी.
हेतु भी अपना नामांकन करवा सकेंगे. इस व्यवस्था के लागू होने के बाद भी यह
निर्विवाद रूप से नहीं कहा जा सकता है कि इसके द्वारा शोध कार्यों में गुणवत्ता का
विकास होगा. यूजीसी द्वारा भले ही पी-एच.डी. को शोध कार्य हेतु एक प्रक्रिया माना
जाता हो मगर समाज में आज भी इसे महज एक उपाधि मानकर औपचारिकता को पूरा किया जाता
है. मौलिक शोध कार्य को वरीयता देने से अधिक महत्त्व नाम के साथ डॉक्टरेट उपाधि का
लग जाना रहता है.
देखा जाये तो आज
भी कला, साहित्य, मानविकी आदि विषयों में इस प्रकार के शोध कार्य नहीं हो रहे हैं जिनके
द्वारा समाज को एक दिशा दी जा सके. समाज के मुख्य बिन्दुओं,
समाज की समस्याओं, दैनिक जीवन में सहयोगी होने वाले विषयों
आदि से सम्बंधित शोध कार्य हेतु प्रोत्साहन भी नहीं दिया जाता है. ऐसे में इन
क्षेत्रों में शोध कार्य को बहुत गंभीरता से नहीं लिया जाता है. पी-एच.डी. के लिए
किया जाने वाला शोध कार्य महज एक पुस्तकीय संस्करण बन कर रह जाता है. यदि शोध
कार्य व्यक्ति के कैरियर के लिए होगा, उसकी एपीआई बढ़ाने के
लिए होगा, उसकी प्रोन्नति के लिए आवश्यक होगा तो शोध कार्य
में गुणवत्ता कैसे आएगी? बावजूद इसके, इस नई व्यवस्था से शोध कार्य में
गुणवत्ता के, योग्यता के आने की सम्भावना देखनी चाहिए लेकिन
उसके लिए यूजीसी को कुछ सख्त कदम उठाने की आवश्यकता है.
भले ही नेट की
परीक्षा उत्तीर्ण करना विद्यार्थियों के लिए सदैव से चुनौती रहा हो मगर इसके
द्वारा गुणवत्ता को बढ़ाने वाली योग्यता का चयन ही होगा, ऐसा कहना मुश्किल है. शोध कार्य की
गुणवत्ता के लिए ऐसे योग्य विद्यार्थियों का चयन किये जाने की आवश्यकता है जिनकी
रुचि शोध कार्य में हो. नेट परीक्षा आरम्भ से ही असिस्टेंट प्रोफ़ेसर बनने की
पात्रता मात्र रही है, अब यह पी-एच.डी. करवाने की पात्रता भी बन गई है. इससे शोध
कार्य में गुणवत्ता के आने की, उच्च शिक्षा क्षेत्र में सुधार की सम्भावना न के
बराबर ही है. यदि यूजीसी वाकई शोध कार्य में गुणवत्ता चाहती है तो उसे शोध कार्य
हेतु एक अलग मार्ग निर्धारित करना होगा. जहाँ किताबी शोध कार्य के बजाय समाज के
बीच जाकर शोध कार्य करवाया जाये. शोध कार्य इस तरह का हो जिससे आमजन के जीवन में
सकारात्मकता आये, लोगों को एक दिशा मिले, कार्योंन्मुख जीवन-शैली का विकास हो, तब तो शोध कार्य की सार्थकता समझ
आती है. यदि ऐसा करने में कोई भी शोध कार्य सफल नहीं होता है तो निस्संदेह वह
कार्य महज उपाधि प्राप्ति का ही साधन मात्र बना रहेगा फिर भले ही उसे नेट परीक्षा
के माध्यम से करवाया जाये या किसी अन्य प्रतियोगी परीक्षा के द्वारा.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें