30 अप्रैल 2024

ज़िन्दगी इक सफ़र है सुहाना

अक्सर समय के गुजरने के साथ-साथ लोग ज़िन्दगी का गुजरना जोड़ लेते हैं. इस तरह का गणित न केवल जीवन का गणित बिगाड़ देता है बल्कि ज़िन्दगी को गुजारने के तरीके का समीकरण भी ख़राब कर देता है. ज़िन्दगी का गुजरना एक बात है और ज़िन्दगी को गुजारना दूसरी बात है. देखने-पढ़ने-सुनने में ये बात लगभग एक जैसी ही लग रही होगी किन्तु एक जैसी है नहीं. इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है. जीवन एक तरह की आइसक्रीम है, जो आपके हाथ में आ गई है. इसका स्वाद ले लेंगे तो स्वाद आएगा अन्यथा की स्थिति में यह पिघल कर ख़त्म हो जाएगी.

 


ज़िन्दगी भी कुछ इसी तरह की स्थिति में रहती है. ऐसा नहीं है कि ऐसा व्यक्ति की आर्थिक-सामाजिक स्थिति देखकर निर्धारित होता हो. व्यक्ति चाहे अमीर हो या गरीब, सामाजिक हो या फिर असामाजिक अथवा किसी अन्य प्रस्थिति का, ज़िन्दगी सबके साथ एक जैसा व्यवहार करती है. जन्म लेते ही उसकी गति आरम्भ हो जाती है जो मृत्यु होने तक निरंतर गतिमान रहती है. इस बीच की अवधि में व्यक्ति अपने कर्मों से ज़िन्दगी का सुख उठा लेता है और कोई व्यक्ति अपने ही कर्मों से ज़िन्दगी को दुखद बना लेता है. यहाँ समझने वाली बात यह है कि कोई भी व्यक्ति कुछ भी न करे, किसी भी तरह से अपनी सक्रियता का उदाहरण प्रस्तुत न करे तो भी एक निश्चित समयावधि के बाद उसका जीवन समाप्त हो जायेगा. इसमें उसकी क्रियाशीलता की, निष्क्रियता की कोई भूमिका नहीं रहती है.

 

बस यही हम सबको जानने-समझने की आवश्यकता है कि जिंदगी तो गुजर ही रही है, उसे गुजर ही जाने देना है या फिर गुजारना है?






 

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