प्रत्येक
वर्ष 11 जुलाई को विश्व जनसंख्या दिवस मनाया जाता है. बढ़ती जनसंख्या के चलते बनने
वाले दबाव और उसके द्वारा उत्पन्न होने वाले नुकसानों पर भी चर्चा की जाती है. इस
वर्ष जनसंख्या के सम्बन्ध में चर्चा करना इस कारण भी महत्त्वपूर्ण समझ आ रहा है
क्योंकि संयुक्त राष्ट्र संघ के घोषित आँकड़ों के अनुसार भारत ने 1428.6 मिलियन की जनसंख्या के साथ चीन (1425.7 मिलियन) को
पीछे छोड़ दिया है. स्पष्ट सी बात है कि बढ़ती जनसंख्या से प्राकृतिक संसाधनों का भी
ज्यादा दोहन होगा. इन संसाधनों के अंधाधुंध दोहन से सतत विकास की प्रक्रिया भी
अवरुद्ध होती है. देश की बहुतायत जनसंख्या का कृषि पर निर्भर होने के कारण कृषि
क्षेत्र पर भी भार बढ़ेगा. कृषि विकास बाधित होगा, प्रति व्यक्ति आय में नकारात्मक
प्रभाव पड़ेगा, नागरिकों के हितों की सुरक्षा पर भी संकट आएगा, इसके साथ ही साथ
प्राकृतिक आपदाओं के आने की आशंका बढ़ेगी.
बढ़ती
जनसंख्या के बीच बढ़ती प्राकृतिक आपदाओं वाली बात शायद आश्चर्य सा जगाये किन्तु जनसंख्या
सिद्धांत के द्वारा इसे स्पष्ट किया जा चुका है. जनसंख्या का सम्बन्ध सदैव से
उपलब्ध संसाधनों से रहा है. जनसंख्या और संसाधन के बीच यह सम्बन्ध स्थापित करने के
लिए अनेकानेक सिद्धांत प्लेटो के समय से सामने आते रहे हैं. इन सिद्धांतों में दो
तरह के सिद्धांत सामने आये. पहला, प्राकृतिक सिद्धांत और
दूसरा, सामाजिक-सांस्कृतिक सिद्धांत. जिस जनसंख्या सिद्धांत को सर्वाधिक महत्त्व
मिला, उसे थॉमस राबर्ट माल्थस द्वारा प्रतिपादित किया गया था. इसे प्राकृतिक सिद्धांत में शामिल किया
जाता है. माल्थस ब्रिटेन के निवासी थे तथा इतिहास तथा अर्थशास्त्र विषय के ज्ञाता थे.
इन्होंने अपने एक निबंध प्रिंसिपल ऑफ़ पापुलेशन में एक तरफ जनसंख्या की वृद्धि एवं जनसांख्यिकीय परिवर्तनों का तथा दूसरी तरफ सांस्कृतिक एवं आर्थिक परिवर्तनों का उल्लेख किया. यह
निबंध वर्ष 1798 में प्रकाशित भी हुआ था. माल्थस ने अपने निबंध में संसाधन शब्द के
स्थान पर जीविकोपार्जन के साधन का प्रयोग किया था. उन्होंने विचार दिया कि मानव
में जनसंख्या बढ़ाने की क्षमता बहुत अधिक है और इसकी तुलना में पृथ्वी में मानव के
लिए जीविकोपार्जन के साधन जुटाने की क्षमता कम है. उनके अनुसार जनसंख्या वृद्धि गुणोत्तर श्रेणी या
ज्यामितीय रूप में होती है अर्थात जनसंख्या 1, 2, 4, 8, 16, 32, 64... की दर
से बढ़ती है. इसके उलट जीविकोपार्जन के साधन समान्तर श्रेणी या अंकगणितीय रूप में अर्थात 1, 2, 3, 4, 5, 6... की दर से बढ़ते हैं.
ऐसी
आनुपातिक स्थिति के चलते माल्थस का मानना था कि उत्पादन चाहे कितना भी बढ़ जाए, जनसंख्या की वृद्धि दर उससे सदा ही अधिक रहेगी. उन्होंने जनसंख्या एवं
संसाधनों की अनुपात की तीन अवस्थाओं को बताया. पहली, जब
संसाधन उपलब्ध जनसंख्या की तुलना में अधिक हो; दूसरी, जब
संसाधन और जनसंख्या दोनों लगभग समान हो और तीसरी, जब
संसाधन के तुलना में जनसंख्या अधिक हो. पहली और दूसरी स्थिति में जनसंख्या के कम
अथवा समान होने के कारण जनसंख्या संबंधी समस्याओं की पहचान नहीं हो पाती लेकिन
तीसरी स्थिति में, जबकि जनसंख्या संसाधनों से अधिक होती है
तब जनसंख्या वृद्धि एक भयावह चुनौती के रूप में सामने आती है. इस स्थिति में
जनसंख्या तथा संसाधनों के बीच की खाई अधिक बढ़ जाती है. परिणामस्वरूप पूरा समाज
अमीर और गरीब में विभाजित हो जाता है. इसी के चलते पूंजीवादी व्यवस्था स्थापित हो
जाती है. इस अवस्था में खाद्यान्न संकट वृहद स्तर पर उत्पन्न होता है और जनसंख्या
के लिए खाद्यान्न की समस्या प्रमुख हो जाती है. संसाधनों पर अधिक दबाव की स्थिति
में भुखमरी, महामारी, युद्ध
और प्राकृतिक आपदा की स्थिति उत्पन्न होने लगती है. ऐसी स्थिति के कारण हुई मौतों
के पश्चात् जनसंख्या में कमी आती है अर्थात जनसंख्या प्रकृति द्वारा नियंत्रित हो
जाती है और पहली अथवा दूसरी अवस्था में जाने लगती
है.
उनका
स्पष्ट मत था कि जनसंख्या को यदि नियंत्रित न करके जनसंख्या और संसाधनों में
संतुलन स्थापित नहीं किया जाता है तो प्रकृति स्वतः ही संतुलन स्थापित लेती है.
जनसंख्या नियंत्रण के इन कारणों को माल्थस ने सकारात्मक उपाय कहा है. इसके साथ-साथ
माल्थस ने जनसंख्या नियंत्रण के लिए इन सकारात्मक उपायों के अतिरिक्त भी नियंत्रण
के प्रभावी उपाय किए जाने पर जोर दिया. उनका कहना था कि यदि मनुष्य स्वयं ही
ब्रह्मचर्य का पालन, आत्मसंयम, देर से विवाह और विवाह के बाद भी आत्मसंयम जैसे नैतिक उपायों पर जोर दे तो
न ही जनाधिक्य की स्थिति उत्पन्न होगी और न ही जनसंख्या विस्फोट की स्थिति होगी. यदि
उक्त सिद्धांत के परिप्रेक्ष्य में विगत एक दशक की प्राकृतिक घटनाओं पर ही नजर
डालें तो समझ आएगा कि लगभग समूचा विश्व अपने आपमें किसी न किसी प्राकृतिक आपदा की
चपेट में लगातार आता रहा है. जंगलों की आग, सूनामी जैसी
स्थिति, बाढ़, भूस्खलन, ज्वालामुखी विस्फोट, सार्स, इबोला,
मर्स आदि महामारियाँ, चक्रवाती तूफ़ान आदि-आदि
ऐसी प्राकृतिक आपदाएँ हैं जिनके द्वारा संभव है कि प्रकृति समय-समय पर जनसंख्या और
संसाधनों में संतुलन स्थापित कर रही हो. कहीं यह प्रकृति द्वारा संतुलन बनाने का
प्रयास तो नहीं?
कुछ
भी हो मगर यह सत्य है कि जब-जब जनसंख्या उपलब्ध संसाधनों से अधिक होगी तो अराजकता
की स्थिति आएगी. सामानों, उत्पादों के लिए लूट मचेगी. सक्षम
लोगों तक इनकी उपलब्धता हो सकेगी जो इससे वंचित रहेंगे वे भुखमरी, कुपोषण आदि का शिकार होंगे. स्पष्ट है कि प्रकृति स्वतः ही संतुलन स्थापित
कर लेगी. हम सभी को जनसंख्या नियंत्रण के उपायों पर गम्भीर होना ही होगा. यदि ऐसा
नहीं कर सके तो आने वाला समय लगातार ऐसी ही किसी न किसी महामारी का, विभीषिका का शिकार बनता रहेगा.
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