कभी-कभी कुछ लोग
सयाना बनने-दिखाने के चक्कर में कुछ ज्यादा ही सयानापन दिखा जाते हैं और फिर हाल
ये होता है कि वे कहीं के नहीं रहते हैं, हँसी का पात्र बनते हैं, सो अलग से. ऐसे लोगों के सम्बन्ध
में एक कथा बड़ी प्रचलित है, जिसके अनुसार कहा जाता है कि
प्याज भी खाया, जूते भी खाए और अंत में रुपये भी देने पड़े.
इसके पीछे की जो कहानी है वो है तो बहुत छोटी सी मगर बड़ी ही रोचक है.
ऐसा कहा जाता है
कि किसी समय में एक राज्य में एक अपराधी को किसी अपराध के लिए पकड़ा गया. वहाँ के
नियमानुसार उसे दंड के लिए राजा के सामने पेश किया गया. जिस तरह का अपराध उस
अपराधी का था, उसे देखते
हुए राजा ने सज़ा सुनाई कि वह व्यक्ति सौ प्याज़ खाए या सौ जूते या फिर सौ रुपये
दंड स्वरूप कोष में जमा करे. अपराधी को ये अवसर दिया गया कि वह अपने मनमाफिक सजा
को चुन ले.
अपराध करने वाला
व्यक्ति खुद को बहुत ही सयाना समझता था. उसने सोचा कि आखिर सौ रुपये क्यों बेकार
में खर्च किये जाएँ. वह रोज ही भोजन में चार-छह प्याज खा लेता है, तो धीरे-धीरे खाते हुए सौ तो खा ही
लेगा. उसे सौ जूते खाने या सौ रुपये देने से ज्यादा आसान प्याज़ खाना लगा. ऐसा सोच
कर उसने सौ प्याज़ खाने की सज़ा चुन ली. अभी वह दस-बारह प्याज़ प्याज ही खा सका था
कि उसकी कड़वाहट से मुँह में जलन होने लगी. उसके लिए अब एक और प्याज खाना बहुत ही
मुश्किल समझ आ रहा था. उसे लगने लगा कि यदि अब एक और प्याज खाया तो मर जायेगा.
अब उसने विचार
किया कि इससे बेहतर है कि जूते खा लिए जाएँ तो उसने कहा कि उसे जूते मारे जाएँ.
अभी उसको दस-बारह जूते ही पड़े होंगे कि वह दर्द से बिलबिला उठा. अगले पल उसे लगा
कि प्याज या जूते खाने से कहीं ज्यादा सहज है कि सौ रुपये दंड के तौर पर कोष में
जमा कर दिए जाएँ. जूते मारने वाले से उसने विनती करके जूते न मारने को कहा और झटपट
जेब से सौ रुपये निकाल कर जमा कर दिए.
सयानेपन के चक्कर
में उस अपराधी ने प्याज भी खाए, जूते भी खाए और अंत में उसे सौ रुपये देने पड़ गए.
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