24 दिसंबर 2022

गीत-ग़ज़ल के शौक़ीन नहीं दिखते अब

क्या आजकल लोगों ने गाने-ग़ज़ल सुनना बंद कर दिए? हो सकता है कि आप सबको ये सवाल कुछ अजीब सा लगे. लगा भी होगा बहुतों को कि ये क्या सवाल है मगर यदि अपनी भागमभाग ज़िन्दगी में एक पल को रुक कर बस इसी सवाल का जवाब खोजें तो आप अपने आपमें ही, अपने लिए जवाब न दे पाएँगे. ऐसा आज के समय में बहुत हद तक सही है. आपको, हमें या कहें कि हम एक व्यक्ति को आज के दौर में एक ऐसी नस्ल देखने को मिलती है जिसके काम में हेडफोन लगा है, इयरफोन घुसे हैं मगर सत्य ये है कि वे गाने नहीं सुन रहे होते हैं. इस नस्ल में से कुछेक लोग यदि गाने सुनते भी हैं तो वे बस कुछ पल के लिए. उनके लिए भी गाने सुनना कोई शौक नहीं, कोई पैशन नहीं.


ये सवाल कोई आज अचानक से दिमाग में नहीं आ गया. ये सवाल बहुत दिनों से दिल-दिमाग के किसी कोने में बैठा हुआ था, बस हम ही मौका नहीं निकाल पा रहे थे कि इसे बाहर ला सकें. पिछले एक लम्बे समय से हम अनुभव कर रहे हैं कि हम मित्रों की मुलाकात के दौरान, अपने आसपास जमा भीड़ की बातचीत के दौरान, समाज के विभिन्न मुद्दों पर अपनी राय रखने वालों की बातचीत के दौरान, किशोरों-युवाओं के साथ अपनी बातचीत के दौरान बहुत सारे विषयों पर बात होती है, बहुत सारे मुद्दों पर बहस होती है मगर गानों-ग़ज़लों पर चर्चा नहीं होती है. इसी तरह के बहुत सारे लोगों से उनके शौक पर बात होती है, उनकी पसंद-नापसंद पर बात होती है, उनके कार्यों पर बात होती है मगर इन्हीं में से कोई ऐसा सामने नहीं आता है जो गाने सुनने का शौक रखता हो, जो नए-पुराने गानों-ग़ज़लों को सुनने का शौक रखता हो. आश्चर्य की बात तो ये लगी कि ऐसा हाल उन लोगों का भी है जो खुद को गीत-संगीत के क्षेत्र से जोड़े हुए हैं, लगातार गायन-वादन से जुड़े हैं.




ऐसे में यदि हम अपनी बात करें तो आज भी सुबह उठने के बाद पहला काम रेडियो को शुरू करना होता है. उसके न होने की स्थिति में म्यूजिक सिस्टम चालू हो जाता है. इनका काम गानों-ग़ज़लों को सुनाते रहना है. ये क्रम तब तक निर्बाध चलता है जबकि हमारा सोना नहीं होता है. आपको आश्चर्य लगेगा, ये काम हमारी नित्यक्रिया संपन्न करने के दौरान भी चलता रहता है. बस उस समय म्यूजिक सिस्टम की आवाज़ जरा तेज हो जाती है. इस लेख को लिखे जाने के समय भी ग़ज़ल साथ में चल रही है. ये आदत कोई आज की नहीं है. आज हम इसे आदत नहीं बल्कि नशा कहते हैं. अपने घर में बचपन से ही रेडियो की उपस्थिति को महसूस किया है. गाने, समाचार, कमेंट्री, बच्चों के कार्यक्रम, लोकगीत आदि को रेडियो में बचपन से ही सुनते चले आ रहे हैं.


रेडियो के उस सुहाने दौर में रिकॉर्ड प्लेयर से भी परिचय हुआ, टेप रिकॉर्डर से भी मुलाकात हुई. इन दोनों का अपना अलग ही अंदाज देखा. अस्सी के दशक में उरई में इक्का-दुक्का दुकानें हुआ करती थीं जहाँ कैसेट में गाने की डबिंग हुआ करती थी. ये हम बच्चों के लिए बड़ी कौतूहल की चीज हुआ करती थी. समय के साथ बदलाव आते गए, समझ बढ़ती गई तो कैसेट का, प्लेयर का महत्त्व समझ में आया, उनका अंतर समझ में आया. गाने सुनते-सुनते कब ये शौक ग़ज़ल सुनने में बदल गया पता ही न चला. पुराने गीतों के तमाम सारे गायक-गायिकाओं के बीच कब गुलाम अली ने अपनी ग़ज़ल गायकी से स्थान बना लिया पता ही न चला. नब्बे के दौर में हम मित्रों के बीच यह भी स्वस्थ प्रतियोगिता की एक पहचान हुआ करती थी कि किसके पास किस गायक की नई कैसेट आ गई है, किसने गुलाम अली की कौन सी नई ग़ज़ल पहले सुन ली है.


उन दिनों आपसी बातचीत का एक विषय गीत-ग़ज़ल भी हुआ करते थे. आज ऐसा कुछ नहीं दिख रहा है. अभी पिछले दिनों गुलाम अली की एक बेहतरीन ग़ज़ल की चर्चा अपने मित्रों से की, परिचितों से की मगर किसी ने ये भी जानने की कोशिश ना की कि वो ग़ज़ल कौन सी है. अपने कॉलेज में भी सामान्य बातचीत के दौरान भी यदि कभी गीत-ग़ज़ल की चर्चा हो जाती है तो सामने से कोई प्रतिक्रिया नहीं आती है. जबकि ऐसा पहले नहीं था. पहले एक मित्र के यहाँ यदि कैसेट आ जाती थी तो बारी-बारी से उसी रिकॉर्डिंग सभी मित्रों तक पहुँच जाती थी. हमें आज भी याद है उस समय गुलाम अली का कोई कार्यक्रम शायद दिल्ली में हुआ था. हमारे एक मित्र को इसीलिए दिल्ली भेजा गया था कि वो लाइव रिकॉर्डिंग करेगा. उसने भी वहाँ पहुँच कर विशेष रूप से स्पीकर के पास बैठने का इंतजाम किया और गुलाम अली का लाइव कार्यक्रम रिकॉर्ड किया. वो कैसेट आज भी हमारे पास सुरक्षित है.


अब हो सकता है कि लोग गीत-ग़ज़ल सुनते हों मगर खुद में सीमित रहकर. जैसे बहुत सी बातों को लोगों ने गोपनीय बना दिया है, शायद गीत-ग़ज़ल सुनने के शौक को भी गोपनीय बना दिया हो.

  






 

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