21 दिसंबर 2022

इक मुलाकात जरूरी है ज़िन्दगी के लिए

हम सभी के साथ अक्सर ऐसा होता होगा कि हम लोगों से मिलने का मन बनाये रहते हैं, बहुत से लोगों से बात करने का मन बनाये होते हैं मगर अपनी ओढ़ी हुई व्यस्तता के कारण न मिलने का समय निकाल पाते हैं और न ही फोन से बात कर पाते हैं. दिन में कई बार ऐसे विचार आने के बाद भी उसे आने वाले समय में कर लेने का सोच कर टाल जाते हैं. मिलने-जुलने, बातचीत करने का लगातार सोचते रहने के बाद भी कई-कई बार तो महीनों गुजर जाते हैं और अपने विचार को क्रियान्वित नहीं कर पाते हैं. मिलना-जुलना, मेल-मिलाप, बातचीत आदि एक सामाजिक क्रिया है और इससे संबंधों में प्रगाढ़ता तो आती ही है, आपसी समन्वय-सहयोग की भावना का विकास भी होता है. यह जानते-समझते हुए भी देखने में आ रहा है कि लोगों में मिलने-जुलने की भावना कम से कमतर होती जा रही है.


ये सदियों पहले की बात नहीं है जबकि समाज में मिलने-जुलने का भाव प्रमुख था. नब्बे के दशक में भी इस तरह की गतिविधियाँ सहज रूप से संपन्न हुआ करती थीं, जबकि लोग बड़े प्रेम, स्नेह के साथ एक-दूसरे के परिजनों के साथ मेल-मिलाप करते हुए अपना जीवन-यापन करते थे. हमें बहुत अच्छे से याद है कि शाम का समय यार-दोस्तों के साथ मिलकर गप्पबाजी करने में, घूमने-टहलने में बीता करता था. किसी दोस्त के दो-चार दिन न मिलने पर उसके घर पहुँचकर उसके हालचाल लिए जाते थे. दोस्तों के बीच ही सामंजस्य या मधुर सम्बन्ध नहीं हुआ करते थे बल्कि उनके परिजन भी आपस में मैत्रीभाव से जुड़े होते थे, एक-दूसरे के बारे में जानकारी रखते थे, उनका ध्यान रखते थे. अब ऐसा देखा जाना दुर्लभ हो गया है.




इस बारे में बीते दिनों हमारी अपने एक परिचित से मुलाकात हुई. अब घर जाकर मिलने में तमाम तरह की बाध्यताओं का पालन करने के कारण से बहुत से लोगों के घरों में जाना बंद कर दिया है. अब नियमित रूप से उन्हीं मित्रों, परिचितों के घर जाया जाता है जहाँ आज भी कोई औपचारिकता नहीं है, किसी तरह की कोई बाध्यता नहीं है. हाँ तो, एक शाम हमारे एक परिचित सड़क की चहलकदमी के दौरान मिले. इधर-उधर की बातचीत के दौरान मिलने-जुलने सम्बन्धी विषय पर चर्चा आकर टिक गई. उन्होंने अपना एक अनुभव हमारे साथ बाँटा तो एक पल को झटका सा लगा. उन्होंने बताया कि उनके रिश्ते के एक भाई ने एक बार उनके पारिवारिक आयोजन के दौरान एक सवाल सबके सामने रखा कि हम लोगों का अगले दस-पन्द्रह साल में आपस में कितनी बार मिलना संभव है?


देखने-सुनने में यह सवाल एकदम सामान्य सा, सीधा-साधा सा है. बावजूद इसके हमारे परिचित के परिजनों में आश्चर्य के साथ-साथ एक अनदेखे भय का भी संचार हुआ जबकि आपस में मिलने की संख्या बहुत अधिक नहीं हो सकी. उन सबके बीच सामान्य रूप से एक बात यह उभरी कि यदि परिवार में शादी-विवाह न हों, अन्य कोई पारिवारिक आयोजन न हो तो सबका आपस में बरसों-बरस तक मिलना नहीं होता है. यह स्थिति अकेले हमारे परिचित के परिवार की नहीं है कमोबेश सभी की है. एक पल को आप भी विचार करके देखिये कि अपने परिवार में जिन सदस्यों को आप अपना बहुत ख़ास कहते हैं, सार्वजानिक रूप से जिनके लिए आप जान तक देने का दम भरते हैं, उनके साथ मुलाकात की समयावधि क्या होती है? याद करके देखिएगा कि अपने किसी आत्मीय से, जो आपका परिजन नहीं है उसके साथ आपने अंतिम मुलाकात कर की थी?


ज़िन्दगी वाकई बहुत छोटी है. मिलना-जुलना, बातचीत करना बनाये रहना चाहिए. परिवार हो या मित्र, सभी से आत्मीय सम्बन्ध बने रहना एक बात है और उनसे मिलकर अपनी भावनाओं को प्रकट कर देना एक अलग बात है. मिलना-जुलना, आपस में बैठकर तमाम बातें करना बहुत सी परेशानियों को दूर भी करता है, बहुत सी समस्याओं का समाधान भी प्रस्तुत करता है. जिससे मन करे उससे मिल आना चाहिए. जिससे मन करे उससे बात कर लेना चाहिए. क्षणभंगुर जीवन में पता नहीं कब आप ही कहें कि काश! उससे मिल आये होते, फलां व्यक्ति बहुत भला था. इससे पहले संबंधों में, रिश्तों में, आत्मीयता में ‘है के स्थान पर ‘था लगे अपने कदम घर के बाहर निकालिए और अपने आत्मीय को अपनी बाँहों में भर लीजिये, उसे अपने गले लगा लीजिये.  





 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें