दिल और दिमाग की अपनी ही अलग कहानी है. बहुत सी बातें ऐसी होती हैं जिनके लिए
दिल और दिमाग में तालमेल नहीं बैठता है. अक्सर जिस बात के लिए दिल तैयार होता है, दिमाग उसके लिए अपनी सहमति नहीं
देता है. कई बार इसका उल्टा भी होता है. ऐसा नहीं है कि हर बार दिल ही सही होता है
और दिमाग गलत. बहुत बार ऐसा होता है कि दिल सही होता है, तो
बहुत बार दिमाग का कहना भी सही होता है. बावजूद इसके व्यक्तिगत अनुभव किया है कि दिल
और दिमाग के आपसी सम्बन्ध चाहे जैसे हों मगर उनका सबसे ज्यादा शिकार इन्सान ही
बनता है और वही सर्वाधिक कष्ट का सामना करता है.
देखा जाये तो दिल का सम्बन्ध भावनात्मकता से और दिमाग का सम्बन्ध व्यावहारिकता
से है. इसके पीछे किस तरह का सिद्धांत काम करता है या नहीं, इसके बारे में तो
विस्तृत अध्ययन के बाद ही ज्ञात हो सकता है. यहाँ जो भी कहा जा रहा है, वह हमारा
नितांत व्यक्तिगत अनुभव है. दिल के मामले में ज्यादातर मामलों में भावनात्मकता को
ही सर्वोपरि देखा है. दिमाग के द्वारा लाख विश्लेषण करने के बाद भी यदि दिल को
संवेदनात्मक रूप से कोई बात सही लगती है तो इन्सान उसी को करने के प्रति संवेदित
होता है. इसके उलट दिमाग के द्वारा किसी भी बात के होने या न होने, करने या न करने के पीछे पूरी गणित
बैठा ली जाती है, उससे सम्बंधित लाभ-हानि का आकलन कर लिया
जाता है. ऐसा करने के बाद ही उस स्थिति को विचारणीय मानकर आगे बढ़ना होता है.
आजकल हम स्वयं दिल और दिमाग के झंझावात में झूल रहे हैं. बहुत सी बातें इस तरह
से सामने आ रही हैं कि उनके लिए समझ नहीं पाते हैं कि दिल की सुनें या दिमाग की? बहुत
सी बातों में लगता है कि दिल सही कह रहा है मगर दिमाग के आकलन पर जाते हैं तो वह
भी गलत प्रतीत नहीं होता है. इसी तरह बहुत सी बातों में दिमाग का विश्लेषण एकदम
सटीक दिखाई देता है मगर भावनात्मक रूप से दिल की बात भी गलत नहीं लगती है. दिल और
दिमाग के बनाये इस तरह के द्वंद्व के बीच हम खुद को घिरा हुआ पाते हैं. बहुत सी
स्थितियों में दोनों के बीच का रास्ता निकाल लिया जाता है मगर बहुत बार ऐसा होता
है कि खुद को उस घिरी हुई स्थिति से बाहर निकालना मुश्किल मालूम होता है. ऐसी
स्थिति अत्यंत जटिल होती है क्योंकि न तो दिल गलत होता है और न ही दिमाग. ऐसी
स्थिति में हम व्यक्तिगत रूप से जो काम करते हैं वो ये कि दिल की बात मान लेते
हैं. हमारा अपना मानना है कि दिल और दिमाग के द्वंद्व में बात दिल की ही मान लेनी
चाहिए क्योंकि एक वही है जो भावनाओं की, एहसासों की परवाह करता है, बिना किसी
गणित के, बिना किसी विश्लेषण के अपनी बात कहता है.
ऐसा करना हमारे व्यक्तिगत स्तर की बात है. आप किसकी बात मानते हैं, किसकी बात मानेंगे ये आप अपने आकलन
से करियेगा. कहा जा सकता है कि दिमाग लगाइयेगा कि किसकी बात मानी जाये, दिल की या दिमाग की.
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