इधर बहुत दिनों से खुद अपने व्यवहार का अध्ययन किया जा रहा है. अपने आपको अपनी
ही नजर से विश्लेषित किया जा रहा है, खुद का आकलन किया जा रहा है. अभी निष्कर्ष रूप में बहुत कुछ तो नहीं कहा
जा सकता है किन्तु बहुत कुछ ऐसा है जो अपने बारे में और भी स्पष्ट दिखाई देने लगा
है. वैसे ऐसा नहीं है कि अपने कामों के बारे में, अपने
स्वभाव के बारे में इधर ही कुछ दिन से आकलन करना शुरू किया है. इस तरह का काम
बरसों से किया जा रहा है. यदि कहा जाये कि बचपन से तो कोई अतिश्योक्ति न होगी.
उन दिनों हम कक्षा सात या आठ में पढ़ते होंगे. उस समय अपने बाबा जी के साथ सुबह
की सैर पर जाया करते थे. बाबा जी के साथ की सैर का लाभ तो मिला ही, उनके बहुत सारे अनुभवों से सीखने का
भी अवसर मिला. अजनारी गाँव तक लगभग तीन किमी तक की सैर के दौरान बाबा जी से बहुत
सारी सीख, शिक्षाएँ भी मिलती रहती थीं,
जिनके द्वारा आज तक मार्गदर्शन मिलता रहता है. बाबा जी ने ही उसी समय सिखाया था कि
कभी भी कितनी ही बड़ी समस्या क्यों न हो, उसका समाधान उसके
छोटे रूप से सोचना शुरू करो, निकल आएगा. समस्या को बड़ा करके
देखने पर समस्या ही बहुत बड़ी समझ आने लगती है तो समाधान खोजना मुश्किल हो जाता है.
ऐसी अनेक शिक्षाओं के साथ बाबा जी ने सिखाया था कि रोज रात को सोने के पहले
कुछ न कुछ पढ़ना अच्छा रहता है. लिखने-पढ़ने की आदत उसी का सुखद परिणाम है. आज भी
विगत कई वर्षों से नियम बना हुआ है कि रोज रात को सोने के पहले कुछ न कुछ पढ़ा
अवश्य जाता है, भले ही
वह पढ़ना कुछ पृष्ठ का ही हो. इसी तरह से बाबा जी ने एक बात और बताई थी कि दिन भर
जो भी काम करो, उनके बारे में रात को सोने के ठीक पहले विचार
किया करो. देखो कि कौन सा काम गलत किया, कौन सा काम सही
किया. किसकी सहायता की, किसका नुकसान किया. इसके बाद अगले
दिन के लिए संकल्प करो कि गलत काम जो आज हुआ, वो कल से नहीं
होगा. जो नुकसान दूसरे का किया, वो फिर न होने पाए. ये आदत
आज तक बनी हुई है. इसी के चलते कोशिश रहती है, खुद को
सुधारने की, अपना स्वभाव सही करने की.
इसी आदत को विगत कुछ समय से विस्तार देने की कोशिश है. खुद को खुद की नजर से
देखने, परखने की कोशिश
है. ऐसा लगता है हमें खुद के बारे में जैसे संबंधों, रिश्तों, दोस्ती में कई बार सामने वाले पर हम अपनी इच्छा थोपने सी लगते हैं. सामने
वाले पर अपना अधिकार सा मानते हुए उससे अपनी बात को मनवाने की चेष्टा करते हैं.
यद्यपि ऐसा करवाने के पीछे किसी तरह की गलत मानसिकता नहीं होती है तथापि लगता है
कि आखिर सामने वाले की भी अपनी सोच है, उसकी भी अपनी पसंद
है. ऐसा होना आम बात है कि कोई काम, कोई बात हमें नापसंद हो, आवश्यक नहीं वही बात हमारे अभिन्न मित्र को भी नापसंद हो. बावजूद ये
समझने के हम उसे अपनी पसंद के लिए मजबूर सा करते हैं. बात न मानने की स्थिति में
कई बार गुस्सा आता है मगर सामने वाले पर नहीं, खुद पर. लगता
है कि आखिर क्यों अपनी बात को अगले पर थोप रहे थे, आखिर उसका
भी अपना अधिकार है, किसी बात को मानने या न मानने का, किसी काम को करने या न करने का.
हमारी जिद तरीके की ऐसी हरकत महज इसी भाव में हो जाती है कि हम अगले व्यक्ति
पर अपना सम्पूर्ण अधिकार सा मान लेते हैं, समझ लेते हैं. लगातार कोशिश यही है कि अपनी ऐसी आदत पर
नियंत्रण कर सकें. अपनी जिद जैसी इच्छा को अपने किसी ख़ास,
विशेष पर जबरन न थोपा जाये.
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