28 सितंबर 2022

सेफ ज़ोन में रहते हुए नापसंदगी का काम

एक शाम मित्रों की महफ़िल में बैठे-बिठाए रोजगार, नौकरी, व्यापार आदि की चर्चा छिड़ गई. बात घूम-टहल कर हमारी नौकरी पर आ गई. जरा सी गणित लगाईं तो पता चला कि इस साल दिसंबर में पूरे सत्रह वर्ष हो जाएँगे गांधी महाविद्यालय, उरई में अध्यापन कार्य करते-करते. ये समयावधि तो वो है जो मानदेय के रूप में और वर्ष २०१९ में विनियमितीकरण के रूप में सामने आई है. यदि उससे पहले की प्रबंधकीय स्थिति के अंशकालिक अध्यापन कार्य को भी इसमें शामिल कर लिया जाये तो ढाई दशक से अधिक समय अध्यापन कार्य में लगा चुके हैं. नंबर सिस्टम में देखें तो एकबारगी यह आँकड़ा बड़ा लुभावना लग सकता है. इसके उलट यदि हमारी व्यक्तिगत रुचि को देखते हुए यह आँकड़ा खुद हमारे लिए कष्टकारी महसूस होता है.


स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद किसी भी आम विद्यार्थी की तरह सपना था सिविल सेवा में जाने का. कुछ सालों तक तैयारी भी की मगर शायद उस स्तर को नहीं छू सके जहाँ से सिविल सेवा में जाने का द्वार दिखाई देता. समय के गुजरने के साथ-साथ कैरियर के लिए, भविष्य के लिए कई कामों का निर्धारण मन ही मन में होता रहता था. बहुतेरे कामों की लिस्ट में कहीं से भी अध्यापन कार्य शामिल नहीं था. ये बात किसी भी उस व्यक्ति के लिए आश्चर्य का विषय हो सकती है, जो हमसे परिचित नहीं है कि तमाम सारे कामों की सूची में अध्यापन कार्य न होने के बाद भी ढाई दशक से अधिक का समय इसी क्षेत्र में गुजार दिया गया. एक आश्चर्य वाली बात ये और है कि अध्यापन क्षेत्र में हमारा आना उसी वर्ष से हो गया था, जिस वर्ष हमने अपनी परास्नातक की पढ़ाई पूरी की थी. १९९५ में अर्थशास्त्र से एमए पूरा करते ही डी.वी.कॉलेज, उरई में अध्यापन कार्य शुरू कर दिया था.




बहरहाल, जहाँ तक हमारा व्यक्तिगत रूप से मानना है कि किसी भी व्यक्ति को उसकी रुचि के अनुसार ही अपने कार्य का चुनाव करना चाहिए. ऐसा बहुत से लोग कर पाते होंगे, बहुत से लोग ऐसा नहीं भी कर पाते हैं. समाज में जिस तरह से रोजगार को लेकर, नौकरी को लेकर, आर्थिक स्थायित्व को लेकर मारा-मारी मची रहती है, उसे देखते हुए व्यक्ति किसी भी तरह बस रोजगार को पाना चाहता है. इसके साथ-साथ परिवार को चलाने की स्थिति भी व्यक्ति को ऐसे कामों में धकेल देती है, जो वह करना नहीं चाहता है. रोजगार की खातिर, आर्थिक सहायता के कारण, परिवार को मदद करने के नाम पर व्यक्ति अपने नापसंदगी वाले कार्य को भले ही करता रहे मगर उसमें वह अपना शत-प्रतिशत नहीं दे पाता है या कहें कि चाह कर भी वह ऐसा नहीं कर पाता. इस तरह की स्थिति से हम खुद ही लगातार जूझ रहे हैं.


कहना होगा अपने बारे में कि कतिपय स्थितियाँ, परिस्थितियाँ ऐसी रहीं कि किसी तरह का रिस्क उठा नहीं सके या कि उठाने न दिया गया. जैसा कि अर्थशास्त्र में एक विचार है कि किसी भी कार्य के लिए (वैसे ये उत्पादन के सम्बन्ध में है मगर हमें प्रत्येक कार्य के लिए उचित प्रतीत होता है) भूमि, पूँजी, श्रम, संगठन, साहस की आवश्यकता होती है. इनमें से किसी एक की कमी सफलता को दूर कर देती है. हमारे अपने मामले में इन पाँच में क्या साथ रहा, क्या साथ नहीं रहा ये अलग विषय है किन्तु जब अपना आकलन करते हैं तो लगता है कि साहस की कमी रही. स्थितियों, परिस्थितियों, परिवार की स्थितियों के चलते ऐसा साहस नहीं उठा सके कि इस काम को छोड़कर अपने मन के काम को पूरा करने निकल पड़ते.


फिलहाल तो अभी इसी अध्यापन कार्य से जुड़े हुए हैं. प्रयास लगातार हो रहे हैं किसी दूसरे क्षेत्र के लिए मगर बिना अपने सेफ ज़ोन को छोड़े. यह हम स्वयं महसूस करते हैं कि व्यक्ति जब सेफ ज़ोन में होता है तो उसके द्वारा किये जा रहे प्रयास भी बहुत ठोस नहीं होते हैं. सफलता का उच्चतम पाने के लिए आवश्यक लगता है कि व्यक्ति रिस्क ज़ोन में रहे. रिस्क ज़ोन से सेफ ज़ोन में आने की तमन्ना ही व्यक्ति को कार्य करने को प्रेरित करती है और इसमें भी यदि उसके मन का काम हो तो सोने पर सुहागा वाली स्थिति होती है. 





 

1 टिप्पणी:

  1. सही कहा यही सेफ जोन है जो व्यक्ति को अक्सर वो काम करते रहने के लिए मजबूर करता है जिसे वह करना नहीं चाहता है। उम्मीद है आप भी इससे निकलने में सफल होंगे।

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