19 सितंबर 2022

कुंठित यौनेच्छा या स्वतंत्रता

समाज में किसी भी व्यक्ति द्वारा जो भी कृत्य किया जाता है वह किसी न किसी रूप में उसके द्वारा सोचा-विचारी की स्थिति के बाद ही होता है. कभी यदि कोई कदम अचानक से उठ भी जाता है तो उसके पीछे भी अचेतन में बैठी भावना या फिर तात्कालिक घटनाक्रम प्रमुख होता है. यही कारण है कि प्रत्येक कार्य के पीछे का कारण ही उस कार्य की दिशा तय करता है. अभी हाल में ही स्नान करती छात्राओं के वीडियो शेयर करने का जो मामला सामने आया, उसके पीछे भी कोई न कोई कारण अवश्य रहा होगा, ये और बात है कि अभी तक इस मामले की तह तक नहीं पहुँचा जा सका है. उस घटना का अंतिम और मुख्य उद्देश्य क्या होगा, ये तो यथासंभव जाँच के बाद ही सामने आएगा किन्तु समाज में जिस तरह से नग्नता को, सेक्स को पोषित-पल्लवित किया जा रहा है, उससे एक उद्देश्य यौनिक कुंठा से सम्बंधित भी समझ आता है.  


ये अपने आपमें एक परम सत्य है कि सेक्स किसी भी जीव की नैसर्गिक आवश्यकता है. न केवल इंसानों में वरन जानवरों में भी इसको देखा गया है, यहाँ तक कि पेड़-पौधों में भी आपस में निषेचन क्रिया संपन्न होती है, जो एक तरह से सेक्स का ही स्वरूप है. बहरहाल, जिस तरह से मानव समाज के विकास की स्थितियाँ बन रही हैं, विकसित हो रही हैं, उनके साथ-साथ सेक्स सम्बन्धी समस्याओं में, दुराचार की घटनाओं में भी वृद्धि देखने को मिली है. वर्तमान में हालात ये हैं कि किसी भी तरह का कार्यक्रम हो, किसी भी तरह का विज्ञापन हो, किसी भी तरह की फिल्म या धारावाहिक हो सभी में सेक्स को, शारीरिक संबंधों को प्रमुखता से दिखाया जाता है. किसी दौर में ऐसी बातों को फिल्माने में किसी न किसी संकेत का, रूपक का सहारा लिया जाता था मगर अब स्वाभाविकता का नाम लेकर ऐसे दृश्यों का खुलेआम फिल्मांकन होता है. बच्चों के टीवी कार्यक्रमों में बच्चों को भौंड़ी, कामुक मुद्राओं में थिरकते देखा जाता है. उनको द्विअर्थी संवादों में प्रदर्शन करते देखा जा सकता है. अनेकानेक उत्पाद ऐसे हैं जिनको देखकर ऐसा ही लगता है कि उस उत्पाद का निर्माण एकमात्र इसी उद्देश्य से किया गया है कि विपरीतलिंगियों में आकर्षण पैदा हो जाये, उनके बीच शारीरिक सम्बन्ध बन जाये. अब तो इनसे भी एक कदम आगे बढ़कर सोशल मीडिया में शार्ट वीडियो, रील्स आदि के माध्यम से अश्लीलता, नग्नता, कामुक मुद्राओं को हर हाथ में देखा जा रहा है. किसी भी तरह की आपत्ति पर इनको स्वतंत्रता के नाम का आवरण ओढ़ाया जाने लगता है.




आखिरकार यहाँ समझना ही होगा कि स्वतंत्रता है क्या? जीवनशैली आखिर किस तरह से संचालित की जाये? इसे भी समझने की जरूरत है कि कहीं जीवनशैली की स्वतंत्रता के नाम पर, व्यक्तिगत स्वतंत्रता के नाम पर व्यक्ति सेक्स संबंधों में स्वतंत्रता तो नहीं चाह रहा है? कहीं स्वतंत्रता के नाम पर सेक्स को समाज में कथित तौर पर स्थापित करने की साजिश तो नहीं? सेक्स को लेकर, शारीरिक संबंधों को लेकर, विपरीतलिंग को लेकर समाज में जिस तरह से अवधारणा निर्मित की जा रही है, उसे देखते हुए लगता है जैसे इंसान के जीवन का मूलमंत्र सिर्फ और सिर्फ सेक्स रह गया है. दृश्य-श्रव्य माध्यमों में प्रसारित होने वाले कार्यक्रमों, विज्ञापनों में भी सेक्स का प्रस्तुतीकरण इस तरह से किया जाता है जैसे बिना इसके इंसान का जीवन अधूरा है. समस्या यहीं आकर आरम्भ होती है क्योंकि प्रस्तुतीकरण के नाम पर फूहड़ता का प्रदर्शन ज्यादा किया जाता है; दैहिक संतुष्टि के नाम पर जबरन सम्बन्ध बनाये जाने की कोशिश की जाती है; प्यार के नाम पर एकतरफा अतिक्रमण किया जाता है; स्वतंत्रता के नाम पर रिश्तों का, मर्यादा का दोहन किया जाता है. सोचना होगा कि कल को वे मानसिक विकृत लोग, जो दैहिक पूर्ति के लिए जानवरों तक को नहीं बख्शते हैं, अपने अप्राकृतिक यौन-संबंधों को जायज ठहराने के लिए सडकों पर उतर आयें, व्यक्तिगत स्वतंत्रता के नाम पर, जीवनशैली चुनने की स्वतंत्रता के नाम पर किसी भी जानवर के साथ को कानूनी स्वरूप दिए जाने की माँग करने लगें तो क्या ऐसे लोगों की मांगों को स्वीकारना होगा?


जिस तरह से इक्कीसवीं शताब्दी के नाम पर उत्पादों, विचारों, खबरों, कार्यक्रमों, भावनाओं का प्रचार-प्रसार किया गया है उसमें इंसान की वैयक्तिक भावनाओं को ज्यादा महत्त्व प्रदान किया गया है. उसके लिए सामूहिकता, सामाजिकता, सहयोगात्मकता आदि को दोयम दर्जे का सिद्ध करके बताया गया है, व्यक्ति की नितांत निजी स्वतंत्रता को प्रमुखता प्रदान की गई है, ये कहीं न कहीं सामाजिक विखंडन जैसी स्थिति है. पाश्चात्य जीवनशैली को आधार बनाकर जिस तरह से भारतीय जीवनशैली में दरार पैदा की गई है वह भविष्य के लिए घातक है. इसके दुष्परिणाम हमें आज, अभी देखने को मिल रहे हैं. जिस उम्र में बच्चों को अपनी पढ़ाई पर ध्यान देना चाहिए वे रोमांस में घिरे हुए हैं; जिस क्षण का उपयोग उन्हें अपना कैरियर बनाने के लिए करना चाहिए उन क्षणों को वे शारीरिक सुख प्राप्त करने में व्यतीत कर रहे हैं; जो समय उनको ज्ञानार्जन के लिए मिला है उस समय में वे अविवाहित मातृत्व से निपटने के उपाय खोज रहे हैं. जिस मोबाइल को संचार का, जानकारी का केन्द्र होना चाहिए था उसके द्वारा अश्लीलता का, कामुकता का प्रदर्शन किया जा रहा है.


हमारे देश की पीढ़ी सेक्स, समलैंगिकता, अविवाहित मातृत्व, विवाहपूर्व शारीरिक सम्बन्ध, सुरक्षित सेक्स आदि की मीमांसा, चिंतन करने में लगा हुआ है. संभव है कि ऐसे लोगों के सामने भारतीय संस्कृति का कोई व्यापक अथवा सकारात्मक अर्थ ही न हो क्योंकि इस पीढ़ी ने मुख्य रूप से दैहिक सम्बन्धों की चर्चा अपने आसपास होते देखी है. यहाँ आकर समझना होगा कि सेक्स, शारीरिक सम्बन्धों के मामले में नितांत खुला जीवन जीने वाले पाश्चात्य देशवासी भी कहीं न कहीं संयमित भारतीय जीवनशैली के प्रति आकर्षित हो रहे हैं. सेक्स को, दैहिक तृष्णा को एकमात्र उद्देश्य मानकर आगे बढ़ती पीढ़ी न केवल सामाजिकता का ध्वंस कर रही है बल्कि स्वतंत्रता का वास्तविक अर्थ भुलाकर समाज में एक दूसरे तरह की गुलामी को जन्म दे रही है. काश! स्वतंत्रता के नाम पर अधिकारों को समझा जाए न कि अनाधिकार चेष्टा को; काश! वैयक्तिक जीवनशैली के नाम पर रिश्तों की मर्यादा को जाना जाए न कि उनके अमर्यादित किये जाने को; काश! निजी जिंदगी के गुजारने के नाम पर पारिवारिक सौहार्द्र को समझा जाए न कि जीवन-मूल्यों के ध्वंस को; काश! जीवन को जीवन की सार्थकता के नाम पर समझा जाये न कि कुंठित सेक्स भावना के नाम पर. काश....!!!

 





 

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